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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1828
ऋषिः - मृगः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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न꣡मः꣢ स꣣खि꣡भ्यः꣢ पूर्व꣣स꣢द्भ्यो꣣ न꣡मः꣢ साकन्नि꣣षे꣡भ्यः꣢ । यु꣣ञ्जे꣡ वाच꣢꣯ꣳ श꣣त꣡प꣢दीम् ॥१८२८

स्वर सहित पद पाठ

न꣡मः꣢꣯ । स꣣खि꣡भ्यः꣢ । स꣣ । खि꣡भ्यः꣢꣯ । पू꣣र्वस꣡द्भ्यः꣢ । पू꣣र्व । स꣡द्भ्यः꣢꣯ । न꣡मः꣢꣯ । सा꣣कन्निषे꣡भ्यः꣢ । सा꣣कम् । निषे꣡भ्यः꣢ । यु꣣ञ्जे꣢ । वा꣡च꣢꣯म् । श꣡त꣣प꣢दीम् । श꣣त꣢ । प꣣दीम् ॥१८२८॥


स्वर रहित मन्त्र

नमः सखिभ्यः पूर्वसद्भ्यो नमः साकन्निषेभ्यः । युञ्जे वाचꣳ शतपदीम् ॥१८२८


स्वर रहित पद पाठ

नमः । सखिभ्यः । स । खिभ्यः । पूर्वसद्भ्यः । पूर्व । सद्भ्यः । नमः । साकन्निषेभ्यः । साकम् । निषेभ्यः । युञ्जे । वाचम् । शतपदीम् । शत । पदीम् ॥१८२८॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1828
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 6; सूक्त » 6; मन्त्र » 1
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पदार्थ -

गत मन्त्र का ‘अग्नि' – जो सदा जाग रहा है, वह अपने जीवन का सतत निरीक्षण करता है । मेरे जीवन में कहीं शत्रुओं का डेरा तो नहीं पड़ गया? उनके अधिष्ठानों को ढूँढ-ढूँढकर यह नष्ट करता है, अतः इसका नाम ही मृग हो जाता है । यह ‘मृग'=आत्मान्वेषण करनेवाला व्यक्ति देखता है कि कितने ही व्यक्ति इस कल्याण के मार्ग पर चलनेवाले हुए हैं और उसके अपने जीवन की तुलना में कितनी ऊँची स्थिति को उन्होंने प्राप्त किया है । यह उनके प्रति नतमस्तक होता है और कहता है कि (पूर्वसद्भ्यः) = मुझसे आगे ठहरनेवाले (सखिभ्यः) = इन सखाओं के लिए - कल्याण के मार्ग पर चलनेवाले मित्रों के लिए (नम:) = मैं नमस्कार करता हूँ । इस समय जो (साकंनिषेभ्यः) = मेरे साथ ही बैठे हैं, उन कल्याण-मार्ग के पथिकों के लिए भी (नमः) = मैं नमः कहता हूँ और निश्चय करता हूँ कि (शतपदीम् वाचम्) = इस शत-पथवाली यजुर्वेदरूप कर्मों की प्रतिपादक वाणी का युञ्जे=मैं प्रयोग करता हूँ। इसमें प्रभु से उपदिष्ट अपने कर्त्तव्यों का पालन करता हूँ ।

यजुर्वेद में अध्याय ४० ही हैं परन्तु उसका व्याख्यान याज्ञवल्क्य ऋषि ने ‘शत-पथ' के रूप में ही किया है । १ से लेकर १०० वर्ष तक हमारे जो भी कर्त्तव्य हैं सभी का प्रतिपादन तो यजुर्वेद में हुआ है, इसलिए इस वाणी का 'शतपदी' नाम उपयुक्त ही है । प्रसङ्गवश यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि 'एक शतमध्वर्युशाखा:'=इस यजुर्वेद की शाखाएँ भी १०० हैं। ‘मृग' निश्चय करता है कि मेरा जीवन इस वाणी का प्रयोग करता हुआ ही व्यतीत होगा और इस प्रकार मैं अपने उन पूर्वसद् सखाओं से जाकर मिलने का सतत प्रयत्न करूँगा।

भावार्थ -

हम अपने जीवन में सन्मार्ग पर आगे बढ़े हुए व्यक्तियों का आदर करके उनके मार्ग का अनुगमन करनेवाले बनें। इस समय के भी अपने सत्सङ्गी साथियों को आदर देते हुए आगे बढ़ते चलें। वेदानुसार अपने जीवन को बनाएँ।

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