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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1832
ऋषिः - अवत्सारः काश्यपः
देवता - अग्निः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
2
पु꣡न꣢रू꣣र्जा꣡ नि व꣢꣯र्तस्व꣣ पु꣡न꣢रग्न इ꣣षा꣡यु꣢षा । पु꣡न꣢र्नः पा꣣ह्य꣡ꣳह꣢सः ॥१८३२॥
स्वर सहित पद पाठपु꣡नः꣢꣯ । ऊ꣣र्जा꣢ । नि । व꣣र्तस्व । पु꣡नः꣢꣯ । अ꣣ग्ने । इषा꣢ । आ꣡यु꣢꣯षा । पु꣡नः꣢꣯ । नः꣣ । पाहि । अ꣡ꣳह꣢꣯सः ॥१८३२॥
स्वर रहित मन्त्र
पुनरूर्जा नि वर्तस्व पुनरग्न इषायुषा । पुनर्नः पाह्यꣳहसः ॥१८३२॥
स्वर रहित पद पाठ
पुनः । ऊर्जा । नि । वर्तस्व । पुनः । अग्ने । इषा । आयुषा । पुनः । नः । पाहि । अꣳहसः ॥१८३२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1832
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 8; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 6; सूक्त » 7; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 8; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 6; सूक्त » 7; मन्त्र » 2
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विषय - निवर्तन- -लौटना
पदार्थ -
जीव इस संसार में न जाने कब से भटक रहे हैं । इस संसार के आवर्त्त से उसका निकलना ही नहीं होता। 'इस संसार - चक्र से मुक्त होकर वह अपने वास्तविक घर में कैसे लौट सकता है ?' इस विषय का प्रतिपादन प्रस्तुत मन्त्र में हैं । लौट सकने के उपाय निम्न हैं—
१. (ऊर्जा) = बल और प्राणशक्ति के द्वारा (पुनः निवर्तस्व) = तू फिर लौट जा, अर्थात् यदि हम अपने वास्तविक घर में फिर से वापस पहुँचना चाहते हैं तो हमें अपने बल और प्राणशक्ति को स्थिर रखना होगा। भोगमार्ग पर चलने से इनका ह्रास होता है। (‘भोगे रोगभयम्') = भोगों में ही रोग का भय है (‘सर्वेन्द्रियाणां जरयन्ति तेज:') = ये भोग सब इन्द्रिय-शक्तियों को क्षीण कर देते हैं। भोगों से दूर रहेंगे तो बल और प्राणशक्ति भी स्थिर रहेगी ।
२. भोगों से बचने का उपाय दूसरे वाक्य में संकेतित है। क्रियामय जीवन ही हमें भोगों से बचाता है, अत: कहते हैं— हे (अग्ने) = आगे चलनेवाले जीव ! तू (इषा) = तीव्र गति से युक्त (आयुषा) = जीवन के द्वारा (पुनः) = फिर निवर्तस्व-अपने घर में लौट आ । भोगों से बचना आवश्यक है, भोगों से बचने के लिए क्रियामय जीवन आवश्यक है । मन में पाप की वृत्ति अकर्मण्यता में ही उठती है । ('गृहेषु गोषु मे मनः') = ' हे पाप ! मेरा मन तो घरों में व गौओं में लगा है – तू यहाँ क्योंकर आएगा ।' ऐसा कर्मनिष्ठ व्यक्ति ही तो कह सकता है ।
३. पाप से बचने का ही परिणाम है कि हम प्रभु का दर्शन कर पाते हैं । वेद कहता है कि (अंहसः) = अंहो विमुच्य= पाप को छोड़कर – कुटिलता को त्यागकर (न:) = हमें (पुनः) = फिर (पाहि) =observe देख। जितना-जितना हम पाप व कुटिलता को त्यागते जाएँगे उतना उतना ही मृत्यु से दूर होकर उस अमृत प्रभु के समीप होते जाएँगे ('आर्जवं ब्रह्मणः पदम्') ।
एवं, संसार-चक्र से बचने के तीन साधन हुए -
१. बल और प्राणशक्ति को स्थिर रखना, २. क्रियामय जीवन बनाना और ३. कुटिलता को छोड़कर प्रभु-दर्शन करना ।
भावार्थ -
हम घर लौटने का ध्यान करें ।