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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1837
ऋषिः - त्रिशिरास्त्वाष्ट्रः सिन्धुद्वीप आम्बरीषो वा
देवता - आपः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
4
आ꣢पो꣣ हि꣡ ष्ठा म꣢꣯यो꣣भु꣢व꣣स्ता꣡ न꣢ ऊ꣣र्जे꣡ द꣢धातन । म꣣हे꣡ रणा꣢꣯य꣣ च꣡क्ष꣢से ॥१८३७॥
स्वर सहित पद पाठआ꣡पः꣢꣯ । हि । स्थ । म꣣योभु꣡वः꣢ । म꣣यः । भु꣡वः꣢꣯ । ताः । नः꣣ । ऊर्जे꣢ । द꣣धातन । दधात । न । महे꣢ । र꣡णा꣢꣯य । च꣡क्ष꣢꣯से ॥१८३७॥
स्वर रहित मन्त्र
आपो हि ष्ठा मयोभुवस्ता न ऊर्जे दधातन । महे रणाय चक्षसे ॥१८३७॥
स्वर रहित पद पाठ
आपः । हि । स्थ । मयोभुवः । मयः । भुवः । ताः । नः । ऊर्जे । दधातन । दधात । न । महे । रणाय । चक्षसे ॥१८३७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1837
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 10; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 7; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 10; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 7; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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विषय - ज्ञानरूप दुग्ध
पदार्थ -
‘ब्रह्मवर्चसम् आप:' [ऐ० ८.८]। इस वाक्य में ‘आप:' का अर्थ ज्ञान की शक्ति है। ‘आपो हि पय:' [कौ० ५.४] में आप्यायन करनेवाले ज्ञान को आपः कहा गया है। ‘यदापो असौ द्यौस्तत्' [श० १४.१.२.९] इस शतपथवाक्य में आपः और द्युलोक पर्याय हैं । द्युलोक मूर्धा है । एवं 'ज्ञान' व‘आप:' पर्यायवाची है। कौषीतकी में 'अस्ति वै चतुर्थो देवलोक आप:' [१८.२] । इन शब्दों में आप: को चतुर्थ देवलोक कहा है। अन्नमयकोश पहला लोक है, प्राणमय दूसरा, मनोमय तीसरा और विज्ञानमय चतुर्थ लोक है । एवं, आपः का अर्थ ज्ञान भी है । प्रस्तुत वेदवाणीरूपी धेनु का ही ज्ञानरूप दुग्ध यह ‘आप: ' है । ये (आपः) = ज्ञानजल की धाराएँ (हि) निश्चय से (मयोभुवः) = कल्याण करनेवाली (स्थ) = हों, (ता:) = ये ज्ञानजल की धाराएँ ही (नः) = हमें (ऊर्जे) = बल और प्राणशक्ति में (दधातन) = धारण करें। यह ज्ञान (महे) = हमें महत्त्व प्राप्त करानेवाला हो - हमारे अन्दर [मह पूजायाम्] प्रभुपूजा की वृत्ति को धारण करनेवाला हो । (रणाय) = यह हमारे जीवन की रमणीयता के लिए हो अथवा हमें वासनाओं से संग्राम करके ही इनके पराभव के द्वारा (चक्षसे) = हमें प्रभु का दर्शन कराने के लिए हों ।
ज्ञान का परिणाम हमारे जीवन में इस रूप में होता है कि ये हमें कल्याण, बल न प्राणशक्ति, महत्त्व – पूजा की वृत्ति, रमणीयता व संग्रामशक्ति और प्रभु-दर्शन प्राप्त करानेवाले बनते हैं । वेदवाणी ‘सूनृता धेनु' है तो उसका दूध ऐसा होना ही चाहिए। विज्ञानमयकोश के पश्चात् ही आनन्दमयकोश है। एवं, ज्ञान से ही कल्याण होता है, यह स्पष्ट है । आनन्दमयकोश में आत्मा का निवास है, अतः प्रभुदर्शन भी ज्ञान से ही होगा । ज्ञान से ही हम प्राकृतिक पदार्थों को अपने सुखों का साधन बना पाते हैं। जिस-जिस पदार्थ का ज्ञान नहीं होता, वही वही हमारे दुःख का कारण बन जाता है । ‘ज्ञान शक्ति है' इसे सिद्ध करने की इस वैज्ञानिक युग में आवश्यकता नहीं है। यह ज्ञान हमें भोगों से बचाकर भी बल व प्राणशक्ति सम्पन्न करता है । ज्ञान से लोक में महिमा होती है और हमारी मनोवृत्ति प्रभु-महिमा को देखती हुई प्रभु-प्रवण होती है। इससे हमारा जीवन रमणीय बनता है और हम वासनाओं से संग्राम के लिए भी समर्थ हो पाते हैं ।
भावार्थ -
हम 'सूनृता धेनु' के 'ज्ञानदुग्ध' का पान करें। इस ज्ञान-दुग्ध का पान करने से ही हम प्रस्तुत तृच के तीन मन्त्रों के ऋषि ‘त्रिशिराः' बन पाएँगे।‘त्रयः शिरांसि यस्य' प्रकृति, जीव व परमात्मा तीनों जिसके मस्तिष्क में हैं ।
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