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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1840
वा꣢त꣣ आ꣡ वा꣢तु भेष꣣ज꣢ꣳ श꣣म्भु꣡ म꣢यो꣣भु꣡ नो꣢ हृ꣣दे꣢ । प्र꣢ न꣣ आ꣡यू꣢ꣳषि तारिषत् ॥१८४०॥
स्वर सहित पद पाठवा꣡तः꣢꣯ । आ । वा꣣तु । भेष꣢जम् । श꣣म्भु꣢ । श꣣म् । भु꣢ । म꣣योभु꣢ । म꣣यः । भु꣢ । नः꣣ । हृदे꣢ । प्र । नः꣣ । आ꣡यू꣢꣯ꣳषि । ता꣣रिषत् ॥१८४०॥
स्वर रहित मन्त्र
वात आ वातु भेषजꣳ शम्भु मयोभु नो हृदे । प्र न आयूꣳषि तारिषत् ॥१८४०॥
स्वर रहित पद पाठ
वातः । आ । वातु । भेषजम् । शम्भु । शम् । भु । मयोभु । मयः । भु । नः । हृदे । प्र । नः । आयूꣳषि । तारिषत् ॥१८४०॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1840
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 11; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 7; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 11; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 7; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
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विषय - प्रभु की प्रेरणा
पदार्थ -
‘प्रेरणा' शब्द में 'प्र' उपसर्ग व ईर गतौ धातु है – ईर गतौ के स्थान में 'वा गतौ' धातु को लेकर भाव में क्त प्रत्यय करके 'वात' शब्द बना है। इसका अर्थ भी 'प्रेरणा' ही है । अपने इस जीवन में जब कभी धर्म-संशय उत्पन्न होता है, उस समय जो व्यक्ति इस प्रभु-प्रेरणा पर ही आश्रय करता है वह [वात+अयन]=‘वातायन' कहलाता है । यह अपने सब संशयों व वासनाओं को जलानेवाला होता है – इससे यह 'उल' [उल्= to burn] कहलाने लगता है।
यह ‘वातायन उल’ प्रभु से प्रार्थना करता है - हे प्रभो ! (वातः) = आपकी यह प्रेरणा (भेषजम्) = औषध द्रव्य को (आवातु) = प्राप्त कराए, अर्थात् जितने भी व्यसनरूप मानस रोग हमारे अन्दर उत्पन्न हो जाते हैं आपकी प्रेरणा उनका औषध हो । सब व्यसनों को दूर करके यह प्रेरणा (न:) = हमें (शम्भु) = शान्ति देनेवाली हो (न:) = हमारे हृदय मैं (मयोभु) = कल्याण को भावित करनेवाली हो ।
व्यसनों का अभाव, शान्ति व कल्याण की भावना, हृदय में द्वेष आदि का न होना—ये वे बातें हैं जो (न:) = हमारे (आयूँषि) = जीवनो को (प्र-तारिषत्) = खूब लम्बा करते हैं।
संक्षेप में, प्रभु प्रेरणा १. व्यसनों व रोगों का औषध है - प्रभु - प्रेरणा सुननेवाले के समीप व्यसन नहीं फटकते, २. यह प्रेरणा शान्ति प्राप्त कराती है- व्यर्थ की चिन्ताओं से दूर कर चित्त को शान्त करती है, ३. मयोभु-हृदय में कल्याण का भावन करती है - सब प्रकार के द्वेषों से ऊपर उठा देती है और ४. इस प्रकार हमारे जीवनों को दीर्घ करती है ।
भावार्थ -
हम सदा हृदयस्थ प्रभु की प्रेरणा को सुनें ।
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