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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1840
    ऋषिः - उलो वातायनः देवता - वायुः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    31

    वा꣢त꣣ आ꣡ वा꣢तु भेष꣣ज꣢ꣳ श꣣म्भु꣡ म꣢यो꣣भु꣡ नो꣢ हृ꣣दे꣢ । प्र꣢ न꣣ आ꣡यू꣢ꣳषि तारिषत् ॥१८४०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वा꣡तः꣢꣯ । आ । वा꣣तु । भेष꣢जम् । श꣣म्भु꣢ । श꣣म् । भु꣢ । म꣣योभु꣢ । म꣣यः । भु꣢ । नः꣣ । हृदे꣢ । प्र । नः꣣ । आ꣡यू꣢꣯ꣳषि । ता꣣रिषत् ॥१८४०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वात आ वातु भेषजꣳ शम्भु मयोभु नो हृदे । प्र न आयूꣳषि तारिषत् ॥१८४०॥


    स्वर रहित पद पाठ

    वातः । आ । वातु । भेषजम् । शम्भु । शम् । भु । मयोभु । मयः । भु । नः । हृदे । प्र । नः । आयूꣳषि । तारिषत् ॥१८४०॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1840
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 11; मन्त्र » 1
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 7; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    प्रथम ऋचा की पूर्वार्चिक में १८४ क्रमाङ्क पर पहले व्याख्या की जा चुकी है। यहाँ वात शब्द से जीवात्मा-सहित प्राण का ग्रहण है।

    पदार्थ

    (वातः) जीवात्मा सहित प्राण (भेषजम्) औषध को (आ वातु) प्राप्त कराये, जो (नः) हमारे (हृदे) हृदय के लिए (शम्भु) रोगों को शान्त करनेवाली तथा (मयोभु) सुखकारी हो। (नः) हमारे (आयूंषि) आयु के वर्षों को (प्र तारिषत्) बढ़ाये ॥१॥

    भावार्थ

    देह में स्थित जीवात्मा जब पूरक, कुम्भक और रेचन की विधि से शुद्ध वायुमण्डल में प्राणायाम का अभ्यास करता है, तब रक्त की शुद्धि द्वारा रोगशान्ति और दीर्घ आयु प्राप्त होती है ॥१॥

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    टिप्पणी

    (देखो अर्थव्याख्या मन्त्र संख्या १८४)

    विशेष

    ऋषिः—वातायन उलः (अध्यात्म वात के अयन-वातावरण में उल्लास को प्राप्त उपासक)॥ छन्दः—गायत्री॥<br>

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    विषय

    प्रभु की प्रेरणा

    पदार्थ

    ‘प्रेरणा' शब्द में 'प्र' उपसर्ग व ईर गतौ धातु है – ईर गतौ के स्थान में 'वा गतौ' धातु को लेकर भाव में क्त प्रत्यय करके 'वात' शब्द बना है। इसका अर्थ भी 'प्रेरणा' ही है । अपने इस जीवन में जब कभी धर्म-संशय उत्पन्न होता है, उस समय जो व्यक्ति इस प्रभु-प्रेरणा पर ही आश्रय करता है वह [वात+अयन]=‘वातायन' कहलाता है । यह अपने सब संशयों व वासनाओं को जलानेवाला होता है – इससे यह 'उल' [उल्= to burn] कहलाने लगता है।

    यह ‘वातायन उल’ प्रभु से प्रार्थना करता है - हे प्रभो ! (वातः) = आपकी यह प्रेरणा (भेषजम्) = औषध द्रव्य को (आवातु) = प्राप्त कराए, अर्थात् जितने भी व्यसनरूप मानस रोग हमारे अन्दर उत्पन्न हो जाते हैं आपकी प्रेरणा उनका औषध हो । सब व्यसनों को दूर करके यह प्रेरणा (न:) = हमें (शम्भु) = शान्ति देनेवाली हो (न:) = हमारे हृदय मैं (मयोभु) = कल्याण को भावित करनेवाली हो ।

    व्यसनों का अभाव, शान्ति व कल्याण की भावना, हृदय में द्वेष आदि का न होना—ये वे बातें हैं जो (न:) = हमारे (आयूँषि) = जीवनो को (प्र-तारिषत्) = खूब लम्बा करते हैं।

    संक्षेप में, प्रभु प्रेरणा १. व्यसनों व रोगों का औषध है - प्रभु - प्रेरणा सुननेवाले के समीप व्यसन नहीं फटकते, २. यह प्रेरणा शान्ति प्राप्त कराती है- व्यर्थ की चिन्ताओं से दूर कर चित्त को शान्त करती है, ३. मयोभु-हृदय में कल्याण का भावन करती है - सब प्रकार के द्वेषों से ऊपर उठा देती है और ४. इस प्रकार हमारे जीवनों को दीर्घ करती है ।

    भावार्थ

    हम सदा हृदयस्थ प्रभु की प्रेरणा को सुनें ।

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    व्याख्या देखो अवि० सं० [१८४] पृ० ९९।

    टिप्पणी

    ऋषिर्देवता च नान्यत्र सहितासूपलभ्यते। अतस्तस्योल्लेखस्तु जीवानन्द मुद्रापितसायणभाष्यमाश्रित्यैव ज्ञेयः। अजमेरमुद्रितसंहितायां केवलं ‘इति साम’ इतिमात्रं प्रदर्शितम्।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ अग्निः पावकः। २ सोभरिः काण्वः। ५, ६ अवत्सारः काश्यपः अन्ये च ऋषयो दृष्टलिङ्गाः*। ८ वत्सप्रीः। ९ गोषूक्तयश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ। १० त्रिशिरास्त्वाष्ट्रः सिंधुद्वीपो वाम्बरीषः। ११ उलो वातायनः। १३ वेनः। ३, ४, ७, १२ इति साम ॥ देवता—१, २, ८ अग्निः। ५, ६ विश्वे देवाः। ९ इन्द्रः। १० अग्निः । ११ वायुः । १३ वेनः। ३, ४, ७, १२ इतिसाम॥ छन्दः—१ विष्टारपङ्क्ति, प्रथमस्य, सतोबृहती उत्तरेषां त्रयाणां, उपरिष्टाज्ज्योतिः अत उत्तरस्य, त्रिष्टुप् चरमस्य। २ प्रागाथम् काकुभम्। ५, ६, १३ त्रिष्टुङ। ८-११ गायत्री। ३, ४, ७, १२ इतिसाम॥ स्वरः—१ पञ्चमः प्रथमस्य, मध्यमः उत्तरेषां त्रयाणा, धैवतः चरमस्य। २ मध्यमः। ५, ६, १३ धैवतः। ८-११ षड्जः। ३, ४, ७, १२ इति साम॥ *केषां चिन्मतेनात्र विंशाध्यायस्य, पञ्चमखण्डस्य च विरामः। *दृष्टिलिंगा दया० भाष्ये पाठः।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके १८४ क्रमाङ्के व्याख्यातपूर्वा। अत्र वातशब्देन जीवात्मसहचरितः प्राणो गृह्यते।

    पदार्थः

    (वातः) जीवात्मसहचरितः प्राणः (भेषजम्) औषधम् (आ वातु) आ गमयतु, यत् (नः) अस्माकम् (हृदे) हृदयाय (शम्भु) रोगशान्तिकरम् (मयोभु) सुखकरं च भवेत्। (नः) अस्माकम् (आयूंषि) जीवनवर्षाणि (प्र तारिषत्) प्रवर्द्धयेत् ॥१॥

    भावार्थः

    देहस्थो जीवात्मा यदा पूरककुम्भकरेचकविधिना शुद्धे वायुमण्डले प्राणायाममभ्यस्यति तथा रक्तशुद्धिद्वारा रोगशान्तिर्दीर्घायुष्यं च प्राप्यते ॥१॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    May the sing arrange for the blowing of medicinal air, that may brings health to our body and delight to our heart. May he prolong our days of life.

    Translator Comment

    Set verse 184. The King should prevent the pollution of air, and make arrangements for keeping it pure, so that his subjects be physically healthy, mentally sound and able to live long.

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    Meaning

    May the wind of life energy blow for us as harbinger of sanatives, good health and peace for our heart and help us to live a full life beyond all suffering and ailment. (Rg. 10-186-1)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (वातः) સર્વત્ર વિભુ ગતિથી પ્રાપ્ત પરમાત્મા (नः) અમારા (हृदे) હૃદયને માટે (शम्भु मयोभु भेषजम्) અધ્યાત્મ કલ્યાણ ભાવિત કરનાર લૌકિક સુખ ભાવિત કરનાર ભેષજ = અમૃત - સ્વરૂપને (आ वातु) સંચારિત કરે (नः आयूंषि प्रतारिषत्) અમારી આયુઓની - પ્રાણોની વૃદ્ધિ કરે.
     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : વાત સ્વરૂપ ઇન્દ્ર પરમાત્મા અમારા હૃદયને માટે - અન્તઃકરણને માટે શાન્તિ ભાવિત કરનાર તથા સુખ ભાવિત કરનાર પોતાના અમૃત સ્વરૂપને સંચારિત કરે - કરે છે, જ્યારે કોઈ તેનો બની જાય છે, તેમાં લીન બની જાય છે અને તેના ભૌતિક પ્રાણોની પણ વૃદ્ધિ કરે છે - મુક્તિમાં રહેનારા અમૃત પ્રાણોને પણ પ્રદાન કરે છે. (૧૦)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    देहात स्थित जीवात्मा जेव्हा पूरक, कुंभक व रेचकच्या पद्धतीने शुद्ध वायुमंडलात प्राणायामाचा अभ्यास करतो तेव्हा रक्तशुद्धीद्वारे रोगशांती व दीर्घ आयुष्य प्राप्त होते. ॥१॥

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