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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1851
ऋषिः - अप्रतिरथ ऐन्द्रः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम -
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स꣡ इषु꣢꣯हस्तैः꣣ स꣡ नि꣢ष꣣ङ्गि꣡भि꣢र्व꣣शी꣡ सꣳस्र꣢꣯ष्टा꣣ स꣢꣫ युध꣣ इ꣡न्द्रो꣢ ग꣣णे꣡न꣢ । स꣣ꣳसृष्टजि꣡त्सो꣢म꣣पा꣡ बा꣢हुश꣣र्ध्यू꣢३꣱ग्र꣡ध꣢न्वा꣣ प्र꣡ति꣢हिताभि꣣र꣡स्ता꣢ ॥१८५१॥

स्वर सहित पद पाठ

सः । इ꣡षु꣢꣯हस्तैः । इ꣡षु꣢꣯ । ह꣣स्तैः । सः꣢ । नि꣣षङ्गि꣡भिः꣢ । नि꣣ । सङ्गि꣡भिः꣢ । व꣣शी꣢ । स꣡ꣳस्र꣢꣯ष्टा । सम् । स्र꣣ष्टा । सः꣢ । यु꣡धः꣢꣯ । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । ग꣣णे꣡न꣢ । स꣣ꣳसृष्टजि꣢त् । स꣣ꣳसृष्ट । जि꣢त् । सो꣡मपाः꣢ । सो꣣म । पाः꣢ । बा꣣हुश꣢र्द्धी । बा꣣हु । श꣢र्द्धी । उ꣣ग्र꣡ध꣢न्वा । उ꣣ग्र꣢ । ध꣣न्वा । प्र꣡ति꣢꣯हिताभिः । प्र꣡ति꣢꣯ । हि꣣ताभिः । अ꣡स्ता꣢꣯ ॥१८५१॥१


स्वर रहित मन्त्र

स इषुहस्तैः स निषङ्गिभिर्वशी सꣳस्रष्टा स युध इन्द्रो गणेन । सꣳसृष्टजित्सोमपा बाहुशर्ध्यू३ग्रधन्वा प्रतिहिताभिरस्ता ॥१८५१॥


स्वर रहित पद पाठ

सः । इषुहस्तैः । इषु । हस्तैः । सः । निषङ्गिभिः । नि । सङ्गिभिः । वशी । सꣳस्रष्टा । सम् । स्रष्टा । सः । युधः । इन्द्रः । गणेन । सꣳसृष्टजित् । सꣳसृष्ट । जित् । सोमपाः । सोम । पाः । बाहुशर्द्धी । बाहु । शर्द्धी । उग्रधन्वा । उग्र । धन्वा । प्रतिहिताभिः । प्रति । हिताभिः । अस्ता ॥१८५१॥१

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1851
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 21; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
Acknowledgment

पदार्थ -

(सः) = वह उपासक (इषुहस्तैः) - प्रेरणारूप हाथों से और (स:) = वह (निषङ्गिभिः) = असङ्ग नामक शस्त्रों से [न=अ, नहीं, सङ्ग- आसक्ति] अनासक्ति से उपलक्षित-मुक्त हुआ हुआ (वशी) = इन्द्रियों को वश में करनेवाला (गणेन संत्रष्टा) = समाज के साथ मेल करनेवाला – एकाकी जीवन न बितानेवाला (सः) = वह (युधः) = वासनाओं से युद्ध करनेवाला (इन्द्रः) = इन्द्रियों का अधिष्ठाता उपासक (संसृष्टजित्) = सब संसर्गों को, विषय-सम्पर्कों को जीतनेवाला होता है। विषय-सम्पर्क को जीतकर ही यह (सोमपा) = सोम का पान करनेवाला होता है। (बाहुशर्धी) = सोमपान के कारण यह अपनी बाहुओं से पराक्रम करनेवाला होता है । इन्द्र ने इस सोम का पान करके ही तो कहा था कि 'भूमि को यहाँ रख दूँ या वहाँ रख दूँ ।' सोम semen=शक्ति का पान- अपने अन्दर खपाना है । (उग्रधन्वा) = ['प्रणवो धनुः'] ओम् या प्रणव ही इसका धनुष है, इससे (उग्र) = उदात्त धनुष हो ही क्या सकता है ? इस प्रणव के जप से ही इसने वासनाओं को विद्ध करना है ।

यह (अस्ता) = शत्रुओं को परे फेंकनेवाला है [असु क्षेपण], परन्तु यह शत्रुओं को परे फेंकने की क्रिया (‘प्रतिहिताभिः') = प्रत्याहृताभिः=इन्द्रियों के वापस आहरण के द्वारा होती है। सामान्यतः शस्त्रों को फेंककर शत्रुओं को भगाया जाता है, परन्तु यहाँ इन्द्रियों को वापस लाकर शत्रुओं को परे फेंका जाता है।‘वापस करना और परे फेंकना' यह काव्य का विरोधाभास अलङ्कार है । उपासक का जीवन भी इस वर्णन के अनुसार काव्यमय है ।

भावार्थ -

प्रभुकृपा से हम अनासक्ति के द्वारा इस संसारवृक्ष का छेदन करनेवाले बनें।

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