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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1850
ऋषिः - अप्रतिरथ ऐन्द्रः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम -
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स꣣ङ्क्र꣡न्द꣢नेनानिमि꣣षे꣡ण꣣ जि꣣ष्णु꣡ना꣢ युत्का꣣रे꣡ण꣢ दुश्च्यव꣣ने꣡न꣢ धृ꣣ष्णु꣡ना꣢ । त꣡दिन्द्रे꣢꣯ण जयत꣣ त꣡त्स꣢हध्वं꣣ यु꣡धो꣢ नर꣣ इ꣡षु꣢हस्तेन꣣ वृ꣡ष्णा꣢ ॥१८५०॥

स्वर सहित पद पाठ

सं꣣क्र꣡न्द꣢नेन । स꣣म् । क्र꣡न्द꣢꣯नेन । अ꣣निमिषे꣡ण꣢ । अ꣣ । निमिषे꣡ण꣢ । जि꣣ष्णु꣡ना꣢ । यु꣣त्कारे꣡ण꣢ । यु꣣त् । कारे꣡ण꣢ । दु꣣श्च्यवने꣡न꣢ । दुः꣣ । च्यवने꣡न꣢ । धृ꣣ष्णु꣡ना꣢ । तत् । इ꣡न्द्रे꣢꣯ण । ज꣣यत । त꣢त् । स꣢हध्वम् । यु꣡धः꣢꣯ । न꣣रः । इ꣡षु꣢꣯हस्तेन । इ꣡षु꣢꣯ । ह꣢स्तेन । वृ꣡ष्णा꣢꣯ ॥१८५०॥


स्वर रहित मन्त्र

सङ्क्रन्दनेनानिमिषेण जिष्णुना युत्कारेण दुश्च्यवनेन धृष्णुना । तदिन्द्रेण जयत तत्सहध्वं युधो नर इषुहस्तेन वृष्णा ॥१८५०॥


स्वर रहित पद पाठ

संक्रन्दनेन । सम् । क्रन्दनेन । अनिमिषेण । अ । निमिषेण । जिष्णुना । युत्कारेण । युत् । कारेण । दुश्च्यवनेन । दुः । च्यवनेन । धृष्णुना । तत् । इन्द्रेण । जयत । तत् । सहध्वम् । युधः । नरः । इषुहस्तेन । इषु । हस्तेन । वृष्णा ॥१८५०॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1850
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 21; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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पदार्थ -

वासनाओं को जीतना सुगम तो क्या असम्भव-सा प्रतीत होता है। इनके साथ युद्ध करनेवाला मनुष्य ‘युधः' है । यह अपने को निरन्तर आगे प्राप्त कराने के कारण ‘नर:' [नृ नये] है। यह अपने आत्मा, अर्थात् अपने को एक आदर्श उपासक के रूप में ढालता है और उस आत्मा से वासनाओं का पराभव करता है ।

कैसी आत्मा से ? [क] (संक्रन्दनेन) = सदा प्रभु का आह्वान करनेवाली आत्मा से । प्रभु के आह्वान ने ही तो इसे सबल बनाना है और वासनाओं को भयभीत करना है। [ख] (अनिमिषेण) = कभी पलक न मारनेवाले से । यह सदा अप्रमत्त रहता है। नाममात्र भी प्रमाद हुआ और वासनाओं का आक्रमण हुआ [ग] (जिष्णुना) = विजय के स्वभाववाले से । यह प्रभु का आह्वान करनेवाला अप्रमत्त जीतेगा नहीं तो क्या हारेगा? [घ] (युत्कारेण) = युद्ध करनेवाले से और [ङ] (दुश्च्यवनेन) = युद्ध से पराङ्मुख न किये जानेवाले से । यह इसलिए भी विजयी होता है कि यह युद्ध से कभी पराङ्मुख नहीं होता। [च] (धृष्णुना) = पराङ्मुख न होने के कारण शत्रुओं का धर्षण करनेवाले से। जो युधिष्ठिर [युधि+स्थिर] युद्ध में स्थिर रहनेवाला होता है वह अनन्त विजय को तो प्राप्त करता ही है। [छ] (इषुहस्तेन) = [इषु – प्रेरणा] प्रभु-प्रेरणा जिसने हाथ में ली हुई है, उससे । यह प्रभु की प्रेरणा को सुनता है और उसके अनुसार हाथों से कार्य करता है, इसलिए यह 'इषुहस्त' कहलाता है। [ज] (वृष्णा) = शक्तिशाली से । प्रभु के उपासक की आत्मा शक्ति सम्पन्न तो होती ही है। ऐसे इन्द्र से — आत्मा से ही नर जीता करता है । मन्त्र में कहते हैं कि (तदिन्द्रेण) = इस इन्द्र से (जयत) = शत्रुओं को जीत लो और (तत् सहध्वम्)  इस वासनाओं के समूह को पराभूत कर दो। 

भावार्थ -

हम अपने में युद्ध में स्थिर रहने की भावना को भरें और विजयी बनें ।

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