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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1850
    ऋषिः - अप्रतिरथ ऐन्द्रः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम -
    42

    स꣣ङ्क्र꣡न्द꣢नेनानिमि꣣षे꣡ण꣣ जि꣣ष्णु꣡ना꣢ युत्का꣣रे꣡ण꣢ दुश्च्यव꣣ने꣡न꣢ धृ꣣ष्णु꣡ना꣢ । त꣡दिन्द्रे꣢꣯ण जयत꣣ त꣡त्स꣢हध्वं꣣ यु꣡धो꣢ नर꣣ इ꣡षु꣢हस्तेन꣣ वृ꣡ष्णा꣢ ॥१८५०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सं꣣क्र꣡न्द꣢नेन । स꣣म् । क्र꣡न्द꣢꣯नेन । अ꣣निमिषे꣡ण꣢ । अ꣣ । निमिषे꣡ण꣢ । जि꣣ष्णु꣡ना꣢ । यु꣣त्कारे꣡ण꣢ । यु꣣त् । कारे꣡ण꣢ । दु꣣श्च्यवने꣡न꣢ । दुः꣣ । च्यवने꣡न꣢ । धृ꣣ष्णु꣡ना꣢ । तत् । इ꣡न्द्रे꣢꣯ण । ज꣣यत । त꣢त् । स꣢हध्वम् । यु꣡धः꣢꣯ । न꣣रः । इ꣡षु꣢꣯हस्तेन । इ꣡षु꣢꣯ । ह꣢स्तेन । वृ꣡ष्णा꣢꣯ ॥१८५०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सङ्क्रन्दनेनानिमिषेण जिष्णुना युत्कारेण दुश्च्यवनेन धृष्णुना । तदिन्द्रेण जयत तत्सहध्वं युधो नर इषुहस्तेन वृष्णा ॥१८५०॥


    स्वर रहित पद पाठ

    संक्रन्दनेन । सम् । क्रन्दनेन । अनिमिषेण । अ । निमिषेण । जिष्णुना । युत्कारेण । युत् । कारेण । दुश्च्यवनेन । दुः । च्यवनेन । धृष्णुना । तत् । इन्द्रेण । जयत । तत् । सहध्वम् । युधः । नरः । इषुहस्तेन । इषु । हस्तेन । वृष्णा ॥१८५०॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1850
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 21; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आगे पुनः वही विषय है।

    पदार्थ

    हे (युधः नरः) योद्धा नरो ! तुम (सङ्क्रन्दनेन) शत्रुओं को रुलानेवाले, (अनिमिषेण) लक्ष्य पर अपलक दृष्टि रखनेवाले, (जिष्णुना) विजयशील, (युत्कारेण) युद्ध करनेवाले, (दुश्च्यवनेन) विपक्षियों से विचलित न किये जा सकनेवाले, (धृष्णुना) स्वयं विपक्षियों को विचलित कर देनेवाले, (इषुहस्तेन) हाथ में बाण आदि शस्त्रास्त्र धारण करनेवाले, (वृष्णा) अस्त्रों की वर्षा करनेवाले, (इन्द्रेण) सेनापति के समान वीर जीवात्मा के द्वारा (तत्) उस युद्ध को (जयत) जीत लो, (तत्) उस आन्तरिक तथा बाह्य शत्रुदल को (सहध्वम्) पराजित कर दो ॥२॥

    भावार्थ

    जैसे शस्त्रास्त्रधारी वीर सेनापति के नेतृत्व में योद्धा लोग सङ्ग्राम को जीत लेते हैं, वैसे ही अपने जीवात्मा को उद्बोधन देकर, उसे नेता बनाकर सब आन्तरिक तथा बाहरी युद्धों को सब लोग जीतें ॥२॥

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    पदार्थ

    (अनिमिषेण संक्रन्दनेन) उपासक को निरन्तर आमन्त्रण करने वाले (युत्कारेण जिष्णुना) काम आदि से युद्ध करने वाले जयशील—(दुश्च्यवनेन धृष्णुना) अजेय धर्षणशील (इन्द्रेण) ऐश्वर्यवान् परमात्मा के साथ (इषुहस्तेन वृष्णा) वरण हाथों वाले जैसे सुखवर्षक के साथ (तत्-जयत) उस काम को जीतो (तत्सहध्वम्) उसे अभिभूत करो—दबाओ—नष्ट करो॥२॥

    विशेष

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    विषय

    युधिष्ठिर

    पदार्थ

    वासनाओं को जीतना सुगम तो क्या असम्भव-सा प्रतीत होता है। इनके साथ युद्ध करनेवाला मनुष्य ‘युधः' है । यह अपने को निरन्तर आगे प्राप्त कराने के कारण ‘नर:' [नृ नये] है। यह अपने आत्मा, अर्थात् अपने को एक आदर्श उपासक के रूप में ढालता है और उस आत्मा से वासनाओं का पराभव करता है ।

    कैसी आत्मा से ? [क] (संक्रन्दनेन) = सदा प्रभु का आह्वान करनेवाली आत्मा से । प्रभु के आह्वान ने ही तो इसे सबल बनाना है और वासनाओं को भयभीत करना है। [ख] (अनिमिषेण) = कभी पलक न मारनेवाले से । यह सदा अप्रमत्त रहता है। नाममात्र भी प्रमाद हुआ और वासनाओं का आक्रमण हुआ [ग] (जिष्णुना) = विजय के स्वभाववाले से । यह प्रभु का आह्वान करनेवाला अप्रमत्त जीतेगा नहीं तो क्या हारेगा? [घ] (युत्कारेण) = युद्ध करनेवाले से और [ङ] (दुश्च्यवनेन) = युद्ध से पराङ्मुख न किये जानेवाले से । यह इसलिए भी विजयी होता है कि यह युद्ध से कभी पराङ्मुख नहीं होता। [च] (धृष्णुना) = पराङ्मुख न होने के कारण शत्रुओं का धर्षण करनेवाले से। जो युधिष्ठिर [युधि+स्थिर] युद्ध में स्थिर रहनेवाला होता है वह अनन्त विजय को तो प्राप्त करता ही है। [छ] (इषुहस्तेन) = [इषु – प्रेरणा] प्रभु-प्रेरणा जिसने हाथ में ली हुई है, उससे । यह प्रभु की प्रेरणा को सुनता है और उसके अनुसार हाथों से कार्य करता है, इसलिए यह 'इषुहस्त' कहलाता है। [ज] (वृष्णा) = शक्तिशाली से । प्रभु के उपासक की आत्मा शक्ति सम्पन्न तो होती ही है। ऐसे इन्द्र से — आत्मा से ही नर जीता करता है । मन्त्र में कहते हैं कि (तदिन्द्रेण) = इस इन्द्र से (जयत) = शत्रुओं को जीत लो और (तत् सहध्वम्)  इस वासनाओं के समूह को पराभूत कर दो। 

    भावार्थ

    हम अपने में युद्ध में स्थिर रहने की भावना को भरें और विजयी बनें ।

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    विषय

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    भावार्थ

    हे (नरः) पुरुषों ! आप लोग (संक्रन्दनेन) शत्रुओं को रुलाने वाले (अनिमिषेण) आंख न झपकने वाले, निरालसी, सावधान, (जिष्णुना) विजयशील, (युत्कारेण) युद्ध करने हारे, (दुश्च्यवनेन) अविचलित रहने हारे (धृष्णुना) धैर्यवान् (इषुहस्तेन) धनुष बाण हाथ में लिये, (वृष्णा) बलवान् (इन्द्रेण) राजा से जिस प्रकार शत्रुओं को दबाया जाता है और युद्धों में विजय प्राप्त किया जाता है उसी प्रकार आप लोग स्वराज से भी अधिक कष्टसाध्य मोक्ष को (संक्रन्दनेन) स्तुतिशील, (अनिमिषेण) अनालसी, (जिष्णुना) सब इन्द्रियों विषयों पर जयी, (युत्कारेण) विघातक विघ्नों से युद्ध करने हारे (दुश्च्यवनेन) साधना से अविचल (धृष्णुना) धैर्यवान् (इषुहस्तेन) ज्ञान को हाथ में लिये (वृष्णा) सुखवर्धक (इन्द्रेण) इस इन्द्र आत्मा से (तत् सहध्वं) वह सब सहन करो और (युधः) आने वाले अभ्यन्तर शत्रुओं को (जयत) जीत जाओ।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१—४ अप्रतिरथ एन्द्रः। ५ अप्रतिरथ ऐन्द्रः प्रथमयोः पायुर्भारद्वाजः चरमस्य। ६ अप्रतिरथः पायुर्भारद्वाजः प्रजापतिश्च। ७ शामो भारद्वाजः प्रथमयोः। ८ पायुर्भारद्वाजः प्रथमस्य, तृतीयस्य च। ९ जय ऐन्द्रः प्रथमस्य, गोतमो राहूगण उत्तरयोः॥ देवता—१, ३, ४ आद्योरिन्द्रः चरमस्यमस्तः। इन्द्रः। बृहस्पतिः प्रथमस्य, इन्द्र उत्तरयोः ५ अप्वा प्रथमस्य इन्द्रो मरुतो वा द्वितीयस्य इषवः चरमस्य। ६, ८ लिंगोक्ता संग्रामाशिषः। ७ इन्द्रः प्रथमयोः। ९ इन्द्र: प्रथमस्य, विश्वेदेवा उत्तरयोः॥ छन्दः—१-४,९ त्रिष्टुप्, ५, ८ त्रिष्टुप प्रथमस्य अनुष्टुवुत्तरयोः। ६, ७ पङ्क्तिः चरमस्य, अनुष्टुप् द्वयोः॥ स्वरः–१–४,९ धैवतः। ५, ८ धैवतः प्रथमस्य गान्धारः उत्तरयोः। ६, ७ पञ्चमः चरमस्य, गान्धारो द्वयोः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनस्तमेव विषयमाह।

    पदार्थः

    हे (युधः नरः) योद्धारः पुरुषाः ! यूयम् (सङ्क्रन्दनेन) शत्रुरोदकेन, (अनिमिषेण) निर्निमेषं लक्ष्ये बद्धदृष्टिना, (जिष्णुना) जयशीलेन, (युत्कारेण) सङ्ग्रामकारिणा, (दुश्च्यवनेन) विपक्षिभिः अविचाल्येन, (धृष्णुना) स्वयं विपक्षिणां धर्षकेण, (इषुहस्तेन) आयुधपाणिना, (वृष्णा) अस्त्रवर्षकेण (इन्द्रेण) सेनापतिना इव वीरेण जीवात्मना (तत्) युद्धम् (जयत) विजयध्वम्, (तत्) आभ्यन्तरं बाह्यं च शत्रुदलम् (सहध्वम्) पराजयध्वम् ॥२॥२

    भावार्थः

    यथा शस्त्रास्त्रधरस्य वीरस्य सेनापतेर्नेतृत्वे योद्धारः संग्रामं जयन्ति तथैव स्वकीयं जीवात्मानमुद्बोध्य तं नेतारं विधाय सर्वाण्याभ्यन्तराणि बाह्यानि च युद्धानि सर्वे जयन्तु ॥२॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Ye Warriors, win the battle, overcome the foe, with the help of the King, the subduer of enemies, ever watchful, victorious, eager to fight, steady, patient, whose hand beers strong arrows !

    Translator Comment

    This verse is also applicable to soul. See Yajur 17-34.

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    Meaning

    O warriors, leading lights of heroes, take up that challenge of anti life forces, fight that war and win with Indra, roaring and terrifying the enemy forces, relentless fighter, ambitious for victory, expert tactician, unshakable, irresistible, generous and brave, and armed with unfailing missiles for victory. (Rg. 10-103-2)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (अनिमिषेण संक्रन्दनेन) ઉપાસકને નિરંતર આમંત્રણ કરનાર (युत्कारेण जिष्णुना) કામ આદિથી યુદ્ધ કરનાર-વિજય કરનાર (दुश्च्यवनेन धृष्णुना) અજેય-પીછે હઠ ન કરનાર (इन्द्रेण) ઐશ્વર્યવાન પરમાત્માની સાથે (इषुहस्तेन वृष्णा) વરણ હાથોવાળા જેમ સુખવર્ષકની સાથે (तत् जयत) તે કામને જીતો (तत्सहध्वम्) તેને અભિભૂત કરો-દબાવો-નષ્ટ કરો. (૨)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसे शस्त्रास्त्रधारी वीर सेनापतीच्या नेतृत्वात योद्धे लोक संग्राम जिंकतात, तसेच आपल्या जीवात्म्याला उद्बोधन करून, त्याला नेता बनवून सर्व आंतरिक व बाह्य युद्ध सर्वांनी जिंकावे ॥२॥

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