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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1849
ऋषिः - अप्रतिरथ ऐन्द्रः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम -
32
आ꣣शुः꣡ शिशा꣢꣯नो वृष꣣भो꣢꣫ न भी꣣मो꣡ घ꣢नाघ꣣नः꣡ क्षोभ꣢꣯णश्चर्षणी꣣ना꣢म् । स꣣ङ्क्र꣡न्द꣢नोऽनिमि꣣ष꣡ ए꣢कवी꣣रः꣢ श꣣त꣢ꣳ सेना꣢꣯ अजयत्सा꣣क꣡मिन्द्रः꣢꣯ ॥१८४९॥
स्वर सहित पद पाठआ꣣शुः꣢ । शि꣡शा꣢꣯नः । वृ꣣षभः꣢ । न । भी꣣मः꣢ । घ꣣नाघनः꣢ । क्षो꣡भ꣢꣯णः । च꣣र्षणीना꣢म् । सं꣣क्र꣡न्द꣢नः । स꣣म् । क्र꣡न्द꣢꣯नः । अ꣣निमिषः꣢ । अ꣢ । निमिषः꣢ । ए꣣कवीरः꣢ । ए꣣क । वीरः꣢ । श꣣त꣢म् । से꣡नाः꣢꣯ । अ꣣जयत् । साक꣢म् । इ꣡न्द्रः꣢꣯ ॥१८४९॥
स्वर रहित मन्त्र
आशुः शिशानो वृषभो न भीमो घनाघनः क्षोभणश्चर्षणीनाम् । सङ्क्रन्दनोऽनिमिष एकवीरः शतꣳ सेना अजयत्साकमिन्द्रः ॥१८४९॥
स्वर रहित पद पाठ
आशुः । शिशानः । वृषभः । न । भीमः । घनाघनः । क्षोभणः । चर्षणीनाम् । संक्रन्दनः । सम् । क्रन्दनः । अनिमिषः । अ । निमिषः । एकवीरः । एक । वीरः । शतम् । सेनाः । अजयत् । साकम् । इन्द्रः ॥१८४९॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1849
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 21; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 21; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
प्रथम मन्त्र में सेनापति के दृष्टान्त से जीवात्मा का वर्णन है।
पदार्थ
(आशुः) शीघ्रकारी, (शिशानः वृषभः न) तीक्ष्ण सींगोंवाले बैल के समान (भीमः) विघ्न डालनेवालों के लिए भयङ्कर, (घनाघनः) द्वेषियों का वध करनेवाला, (चर्षणीनाम्) बाधा डालनेवाले मनुष्यों को (क्षोभणः) विक्षुब्ध कर देनेवाला, (सङ्क्रन्दनः) शत्रुओं को रुलानेवाला, (अनिमिषः) लक्ष्य पर अपलक दृष्टि रखनेवाला, (एकवीरः) अद्वितीय वीर, (इन्द्रः) सेनापति के तुल्य जीवात्मा (साकम्) एक साथ (शतं सेनाः) सौ आन्तरिक और बाह्य सेनाओं को (अजयत्) जीत सकता है ॥१॥ यहाँ उपमालङ्कार तथा वीर रस है ॥१॥
भावार्थ
जैसे राष्ट्र में वीर सेनापति अपने पराक्रम से सब शत्रु सेनाओं को जीत लेता है, वैसे ही शरीर में जीवात्मा आन्तरिक और बाह्य देवासुरसङ्ग्राम में सब विघ्नकारियों को जीत कर अपना साम्राज्य स्थापित करे ॥१॥
पदार्थ
(इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् परमात्मा (आशुः शिशानः) व्यापक सुखदाता२ (वृषभः-न भीमः) दुष्टों—नास्तिकों के प्रति साण्ड के समान भयङ्कर (चर्षणीनां घनाघनः) ज्ञानी उपासकों का अत्यन्त प्रेरक है (अनिमिषः संक्रन्दनः) निरन्तर सम्यक् अपनी ओर आमन्त्रित करनेवाला (एकवीरः) स्वपराक्रम में अकेला (शतं सेनाः साकम्-अजयत्) उपासक आत्मा के बान्धने वाली सैंकड़ों कामादि वासनाओं को जीतने—नष्ट करनेवाला है॥
विशेष
ऋषिः—प्रजापतिः१ (इन्द्रियों का स्वामी शरीररथ से उपरत इन्द्र—परमात्मा का उपासक)॥ देवता—इन्द्रः (ऐश्वर्यवान् परमात्मा)॥ छन्दः—त्रिष्टुप्॥<br>
विषय
एक आदर्श उपासक का जीवन
पदार्थ
१. सामवेद का अन्तिम अध्याय होने से यह उपासना का अन्त है । उपासनान्त= उपासना की चरम सीमा Climax | 'एक आदर्श उपासक कैसा होता है ?' यह प्रस्तुत मन्त्र का विषय है।
[क] (आशुः) = यह शीघ्रता से कार्य करनेवाला होता है, इसमें ढील नहीं होती। इसका जीवन स्फूर्तिमय होता है।
[ख] (शिशान:) = [शो तनूकरणे] यह निरन्तर अपनी बुद्धि को तीव्र करने में लगा है। इस तीव्र बुद्धि ने ही तो इसे प्रभु-दर्शन कराना है। 'दृश्यते त्वग्र्यया बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः'।
[ग] (वृषभ:) = यह वृषभ के समान शक्तिशाली होता है। परमात्मा के सम्पर्क में आकर क्या यह निर्बल रहेगा ?
[घ] (न भीमः)=भयंकर नहीं होता । शक्ति है, परन्तु सौम्यता । इसकी शक्ति परपीड़न के लिए थोड़े ही है ।
[ङ] (घनाघन:) = यह कामादि शत्रुओं का बुरी तरह से हनन करने में लगा है।
[च] (चर्षणीनां क्षोभणः) = मनुष्यों में क्रान्तिकारी विचार देकर - इसने उथल-पुथल मचा दी है। यह गङ्गोत्री में एकान्त, शान्त - जीवन का ही आनन्द नहीं ले रहा ।
[छ] (संक्रन्दनः) = [क्रदि आह्वाने] सदा प्रभु का आह्वान कर रहा है। जहाँ प्रभु का नाम घोषित होता है, वहाँ काम थोडेर ही आता है ?
[ज] (अनिमिषः) = एक पलक भी नहीं मारता - ज़रा भी नहीं सोता, सदा सावधान alert है, सोएगा तो वासनाओं का आक्रमण न हो जाएगा? पुष्पधन्वा, पुष्पसायक, पञ्चबाण [काम] अपने पाँच बाणों से पाँचों इन्द्रियों को मुग्ध करने का प्रयत्न करता है। यही उसका क्लोरोफार्म सुँघाना है, जिसने सूँघ लिया वह काम का शिकार हो गया । यह उपासक तो जागरूक है।
[झ] (एकवीरः) = यह अद्वितीय वीर है तभी तो इसने इन प्रबल वासनाओं से संग्राम किया है—मोर्चा लिया है ।
[ञ] (इन्द्रः) = यह सब इन्द्रियों का अधिष्ठाता है और
[ट] (शतं सेना साकम् अजयत्) = वासनाओं की सैकड़ों सेनाओं को एकसाथ ही जीत लेता
है अथवा उस प्रभु को साथी बनाकर इन वासनाओं की सेना को जीतता है। सब वासनाओं को जीतकर यह लोकहित में प्रवृत्त रहता है, तभी 'प्रजापति' कहलाता है ?
भावार्थ
प्रभु-कृपा से हममें उपासक के ये ग्यारह लक्षण घट पाएँ ।
विषय
missing
भावार्थ
(इन्द्रः) ऐश्वर्यशील इन्द्र राजा जिस प्रकार (शिशानः) तीक्ष्णमति, (शीशुः) शीघ्रगामी, (वृषभः न भीमः) वृषभ के समान अति भयंकर (घनाघनः) शत्रुओं को बार बार मारने वाला, (चर्षणीनां) मनुष्यों और प्रजाओं को (क्षोभणः) विक्षुब्ध करने कंपा देने हारा, (संक्रन्दनः) शत्रुओं के सुलाने वाला या उनको संग्राम के लिये बुलाने वाला, (अनिमिषः) अलस्यरहित (एकवीरः) एकमात्र वीर होकर भी (साकं) एक साथ ही (शतं) सैंकड़ों (सेनाः) सेनाएं (अजयत्) विजय कर लेता है उसी प्रकार यह इन्द्ररूप आत्मा (आशुः) व्यापक (शिशानः) अतिसूक्ष्म, सूक्ष्म सूक्ष्म तत्वों में भी जाने के लिये तीक्ष्णमति (वृषभः न भीमः) जिस प्रकार बैल अपने दोनों सींगों से भय पैदा करता है उसी प्रकार तप और ज्ञान से सबके हृदय में आतङ्क बैठाने वाला, (घनाघनः) आनन्द को निरन्तर वर्षाने के लिये साक्षात् धर्ममेघ स्वरूप, (चर्षणीनां) पदार्थ देखने हारा, इन्द्रियों को कंपाने हारा उतम गति देने हारा, (संक्रन्दनः) उत्तम रीति से ईश्वरस्तुति का उच्चारण करने वाला, (अनिमिषः) आलस्यरहित, निद्रा को भी वशकारी (एकवारः) इन्द्रियों में एकमात्र सामर्थ्यवान् होकर वह (साकं) एक साथ ही (शतं सेनाः) सैंकड़ों चित्तवृत्तियों को (अजयत्) विजय कर लेता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१—४ अप्रतिरथ एन्द्रः। ५ अप्रतिरथ ऐन्द्रः प्रथमयोः पायुर्भारद्वाजः चरमस्य। ६ अप्रतिरथः पायुर्भारद्वाजः प्रजापतिश्च। ७ शामो भारद्वाजः प्रथमयोः। ८ पायुर्भारद्वाजः प्रथमस्य, तृतीयस्य च। ९ जय ऐन्द्रः प्रथमस्य, गोतमो राहूगण उत्तरयोः॥ देवता—१, ३, ४ आद्योरिन्द्रः चरमस्यमस्तः। इन्द्रः। बृहस्पतिः प्रथमस्य, इन्द्र उत्तरयोः ५ अप्वा प्रथमस्य इन्द्रो मरुतो वा द्वितीयस्य इषवः चरमस्य। ६, ८ लिंगोक्ता संग्रामाशिषः। ७ इन्द्रः प्रथमयोः। ९ इन्द्र: प्रथमस्य, विश्वेदेवा उत्तरयोः॥ छन्दः—१-४,९ त्रिष्टुप्, ५, ८ त्रिष्टुप प्रथमस्य अनुष्टुवुत्तरयोः। ६, ७ पङ्क्तिः चरमस्य, अनुष्टुप् द्वयोः॥ स्वरः–१–४,९ धैवतः। ५, ८ धैवतः प्रथमस्य गान्धारः उत्तरयोः। ६, ७ पञ्चमः चरमस्य, गान्धारो द्वयोः॥
संस्कृत (1)
विषयः
तत्रादौ सेनापतिदृष्टान्तेन जीवात्मा वर्ण्यते।
पदार्थः
(आशुः) शीघ्रकारी, (शिशानः वृषभः न) तीक्ष्णशृङ्गो वृष इव (भीमः) विघ्नकारिणां भयजनकः, (घनाघनः२) द्वेष्टॄणां हन्ता, (चर्षणीनाम्) बाधकानां मनुष्याणां (क्षोभणः) विक्षोभयिता, (सङ्क्रन्दनः) शत्रुरोदकः, (अनिमिषः) निर्निमेषः सन् लक्ष्ये बद्धदृष्टिः, (एकवीरः) अद्वितीयः शूरः इन्द्रः सेनापतिरिव जीवात्मा (साकम्) युगपत् (शतं सेनाः) शतसंख्यकाः आभ्यन्तर्यो बाह्याश्च चमूः (अजयत्) जयति ॥१॥३ अत्रोपमालङ्कारो वीरो रसश्च ॥१॥
भावार्थः
यथा राष्ट्रे वीरः सेनापतिः स्वपराक्रमेण सर्वाः शत्रुसेना जयति तथैव देहे जीवात्माऽऽभ्यन्तरे बाह्ये च देवासुरसंग्रामे सर्वान् विघ्नकारिणो विजित्य स्वसाम्राज्यं स्थापयेत् ॥१॥
इंग्लिश (2)
Meaning
A prosperous King is swift, rapidly striking, terrific like a bull, the killer of foes again and again, an awe-inspirer among the people, an inviter of foes to battle, free from sloth, a sole hero, who subdues at Once a hundred armies.
Translator Comment
Pt. Jaidev Vidyalankar has ably and nicely applied in this verse to soul as well. Sec Yajur 17-33.
Meaning
Instantly swift, sharp as a laser beam, terrible like a bull, breaker of the darkest cloud, shaker of mighty men, roaring awful without a wink, sole hero without a second, Indra overthrows a hundred armies together at once. (Rg. 10-103-1)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (इन्द्रः) ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મા (आशुः शिशानः) વ્યાપક સુખદાતા (वृषभः न भीमः) દુષ્ટો નાસ્તિકોની સામે સાંઢ સમાન ભયંકર (चर्षणीनां घनाघनः) જ્ઞાની ઉપાસકોનો અત્યંત પ્રેરક છે. (अनिमिषः संक्रन्दनः) નિરંતર સમ્યક્ પોતાની તરફ આમંત્રિત કરનાર (एकवीरः) પોતાના પરાક્રમમાં એકલો (शतं सेनाः साकम् अजयत्) ઉપાસક આત્માને બાંધનારી સેંકડો કામ આદિ વાસનાઓને જીતનાર-નષ્ટ કરનાર છે. (૧)
मराठी (1)
भावार्थ
जसा राष्ट्रात वीर सेनापती आपल्या पराक्रमाने सर्व शत्रू सेनेला जिंकून घेतो, तसेच शरीरात जीवात्म्याने आंतरिक व बाह्य देवासुर संग्रामात सर्व विघ्नकारी लोकांना जिंकून आपले साम्राज्य स्थापित करावे. ॥१॥
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