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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1849
ऋषिः - अप्रतिरथ ऐन्द्रः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम -
3
आ꣣शुः꣡ शिशा꣢꣯नो वृष꣣भो꣢꣫ न भी꣣मो꣡ घ꣢नाघ꣣नः꣡ क्षोभ꣢꣯णश्चर्षणी꣣ना꣢म् । स꣣ङ्क्र꣡न्द꣢नोऽनिमि꣣ष꣡ ए꣢कवी꣣रः꣢ श꣣त꣢ꣳ सेना꣢꣯ अजयत्सा꣣क꣡मिन्द्रः꣢꣯ ॥१८४९॥
स्वर सहित पद पाठआ꣣शुः꣢ । शि꣡शा꣢꣯नः । वृ꣣षभः꣢ । न । भी꣣मः꣢ । घ꣣नाघनः꣢ । क्षो꣡भ꣢꣯णः । च꣣र्षणीना꣢म् । सं꣣क्र꣡न्द꣢नः । स꣣म् । क्र꣡न्द꣢꣯नः । अ꣣निमिषः꣢ । अ꣢ । निमिषः꣢ । ए꣣कवीरः꣢ । ए꣣क । वीरः꣢ । श꣣त꣢म् । से꣡नाः꣢꣯ । अ꣣जयत् । साक꣢म् । इ꣡न्द्रः꣢꣯ ॥१८४९॥
स्वर रहित मन्त्र
आशुः शिशानो वृषभो न भीमो घनाघनः क्षोभणश्चर्षणीनाम् । सङ्क्रन्दनोऽनिमिष एकवीरः शतꣳ सेना अजयत्साकमिन्द्रः ॥१८४९॥
स्वर रहित पद पाठ
आशुः । शिशानः । वृषभः । न । भीमः । घनाघनः । क्षोभणः । चर्षणीनाम् । संक्रन्दनः । सम् । क्रन्दनः । अनिमिषः । अ । निमिषः । एकवीरः । एक । वीरः । शतम् । सेनाः । अजयत् । साकम् । इन्द्रः ॥१८४९॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1849
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 21; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 21; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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विषय - एक आदर्श उपासक का जीवन
पदार्थ -
१. सामवेद का अन्तिम अध्याय होने से यह उपासना का अन्त है । उपासनान्त= उपासना की चरम सीमा Climax | 'एक आदर्श उपासक कैसा होता है ?' यह प्रस्तुत मन्त्र का विषय है।
[क] (आशुः) = यह शीघ्रता से कार्य करनेवाला होता है, इसमें ढील नहीं होती। इसका जीवन स्फूर्तिमय होता है।
[ख] (शिशान:) = [शो तनूकरणे] यह निरन्तर अपनी बुद्धि को तीव्र करने में लगा है। इस तीव्र बुद्धि ने ही तो इसे प्रभु-दर्शन कराना है। 'दृश्यते त्वग्र्यया बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः'।
[ग] (वृषभ:) = यह वृषभ के समान शक्तिशाली होता है। परमात्मा के सम्पर्क में आकर क्या यह निर्बल रहेगा ?
[घ] (न भीमः)=भयंकर नहीं होता । शक्ति है, परन्तु सौम्यता । इसकी शक्ति परपीड़न के लिए थोड़े ही है ।
[ङ] (घनाघन:) = यह कामादि शत्रुओं का बुरी तरह से हनन करने में लगा है।
[च] (चर्षणीनां क्षोभणः) = मनुष्यों में क्रान्तिकारी विचार देकर - इसने उथल-पुथल मचा दी है। यह गङ्गोत्री में एकान्त, शान्त - जीवन का ही आनन्द नहीं ले रहा ।
[छ] (संक्रन्दनः) = [क्रदि आह्वाने] सदा प्रभु का आह्वान कर रहा है। जहाँ प्रभु का नाम घोषित होता है, वहाँ काम थोडेर ही आता है ?
[ज] (अनिमिषः) = एक पलक भी नहीं मारता - ज़रा भी नहीं सोता, सदा सावधान alert है, सोएगा तो वासनाओं का आक्रमण न हो जाएगा? पुष्पधन्वा, पुष्पसायक, पञ्चबाण [काम] अपने पाँच बाणों से पाँचों इन्द्रियों को मुग्ध करने का प्रयत्न करता है। यही उसका क्लोरोफार्म सुँघाना है, जिसने सूँघ लिया वह काम का शिकार हो गया । यह उपासक तो जागरूक है।
[झ] (एकवीरः) = यह अद्वितीय वीर है तभी तो इसने इन प्रबल वासनाओं से संग्राम किया है—मोर्चा लिया है ।
[ञ] (इन्द्रः) = यह सब इन्द्रियों का अधिष्ठाता है और
[ट] (शतं सेना साकम् अजयत्) = वासनाओं की सैकड़ों सेनाओं को एकसाथ ही जीत लेता
है अथवा उस प्रभु को साथी बनाकर इन वासनाओं की सेना को जीतता है। सब वासनाओं को जीतकर यह लोकहित में प्रवृत्त रहता है, तभी 'प्रजापति' कहलाता है ?
भावार्थ -
प्रभु-कृपा से हममें उपासक के ये ग्यारह लक्षण घट पाएँ ।
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