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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1848
ऋषिः - वेनो भार्गवः
देवता - वेनः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम -
3
द्र꣣प्सः꣡ स꣢मु꣣द्र꣢म꣣भि꣡ यज्जिगा꣢꣯ति꣣ प꣢श्य꣣न्गृ꣡ध्र꣢स्य꣣ च꣡क्ष꣢सा꣣ वि꣡ध꣢र्मन् । भा꣣नुः꣢ शु꣣क्रे꣡ण꣢ शो꣣चि꣡षा꣢ चका꣣न꣢स्तृ꣣ती꣡ये꣢ चक्रे꣣ र꣡ज꣢सि प्रि꣣या꣡णि꣢ ॥१८४८॥
स्वर सहित पद पाठद्र꣣प्सः꣢ । स꣣मुद्र꣢म् । स꣢म् । उद्र꣢म् । अ꣣भि꣢ । यत् । जि꣡गा꣢꣯ति । प꣡श्य꣢꣯न् । गृ꣡ध्र꣢꣯स्य । च꣡क्ष꣢꣯सा । वि꣡ध꣢꣯र्मन् । वि । ध꣣र्मन् । भानुः꣢ । शु꣣क्रे꣡ण꣢ । शो꣣चि꣡षा꣢ । च꣣कानः꣢ । तृ꣣ती꣡ये꣢ । च꣣क्रे । र꣡ज꣢꣯सि । प्रि꣣या꣡णि꣢ ॥१८४८॥
स्वर रहित मन्त्र
द्रप्सः समुद्रमभि यज्जिगाति पश्यन्गृध्रस्य चक्षसा विधर्मन् । भानुः शुक्रेण शोचिषा चकानस्तृतीये चक्रे रजसि प्रियाणि ॥१८४८॥
स्वर रहित पद पाठ
द्रप्सः । समुद्रम् । सम् । उद्रम् । अभि । यत् । जिगाति । पश्यन् । गृध्रस्य । चक्षसा । विधर्मन् । वि । धर्मन् । भानुः । शुक्रेण । शोचिषा । चकानः । तृतीये । चक्रे । रजसि । प्रियाणि ॥१८४८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1848
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 13; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 7; सूक्त » 5; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 13; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 7; सूक्त » 5; मन्त्र » 3
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विषय - द्रप्स [ Drop ] समुद्र [ Ocean ] को
पदार्थ -
प्रभु की तुलना में जीव उसी प्रकार है जैसे समुद्र की तुलना में एक कण । जीव अणु है । उपनिषद् के शब्दों में ('बालाग्रशतभागस्य शतधा कल्पितस्य च । भागो जीवः स विज्ञेयः स चानन्त्याय कल्पते'), जीव छोटे-से-छोटे कण के समान है। प्रभु सर्वव्यापक हैं, कण की दृष्टि से समुद्र हैं। ‘स-मुद्र' इसलिए भी कि सदा आनन्द [मुद] के साथ [स] हैं । जीव तो सुख-दुःख में फिरता रहता है [Drops ] – इसी से द्रप्स है । यह (द्रप्सः) = कण-तुल्य अणु जीवात्मा (यत्) = जब (समुद्रम् अभि) = उस व्यापक परमात्मा की ओर (जिगाति) = जाता है तब (गृध्रस्य) = प्रभु-प्राप्ति के लिए अत्यन्त लालायित पुरुष की (चक्षसा) = दृष्टि से (पश्यन्) = प्रभु को देखता हुआ वह (विधर्मन्) = विशिष्ट धर्मों में अपने को स्थापित करता है, सदा व्रतमय जीवन बिताता है ।
(भानुः) = व्रतों से पवित्र हुआ हुआ वह चमकनेवाला 'वेन' (शुक्रेण) = दीप्त (शोचिषा) = चमक से – ज्ञान की ज्योति से–(चकानः) = चमकता हुआ (तृतीये रजसि) = तीसरे लोक में, अर्थात् तमोगुण से ऊपर उठकर रजोगुण और रजोगुण से ऊपर उठकर सत्त्वगुण में स्थित हुआ हुआ यह (प्रियाणि) = सदा प्रिय कर्मों को ही– प्रभु को प्रीणित करनेवाले कर्मों को ही - (चक्रे) = करता है ।
अपने कर्मों से प्रीणित करके ही तो पुत्र पिता का प्रिय बनता है। इसी प्रकार यह वेन भी परमपिता प्रभु का अपने प्रिय कर्मों से- सात्त्विक कर्मों से- प्रभु का प्यारा होता है, प्रभु इसे अपनी गोद में लेते हैं और इस प्रकार यह बिन्दु-तुल्य जीव समुद्र-तुल्य प्रभु में छिप जाता है । यह अमृत प्रभु से आवृत हुआ हुआ दुःखों के नाम को भी नहीं जानता।
भावार्थ -
बूँद समुद्र को प्राप्त करती है— मैं प्रभु को प्राप्त करूँ।
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