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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1847
ऋषिः - वेनो भार्गवः
देवता - वेनः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम -
3
ऊ꣣र्ध्वो꣡ ग꣢न्ध꣣र्वो꣢꣫ अधि꣣ ना꣡के꣢ अस्थात्प्र꣣त्य꣢ङ्चि꣣त्रा꣡ बिभ्र꣢꣯द꣣स्या꣡यु꣢धानि । व꣡सा꣢नो꣣ अ꣡त्क꣢ꣳ सुर꣣भिं꣢ दृ꣣शे꣢ कꣳ स्वा३र्ण꣡ नाम꣢꣯ जनत प्रि꣣या꣡णि꣢ ॥१८४७॥
स्वर सहित पद पाठऊ꣣र्ध्वः꣢ । ग꣡न्धर्वः꣢ । अ꣡धि꣢꣯ । ना꣡के꣢꣯ । अ꣣स्थात् । प्रत्य꣢ङ् । प्र꣣ति । अ꣢ङ् । चि꣣त्रा । बि꣡भ्र꣢꣯त् । अ꣣स्य । आ꣡यु꣢꣯धानि । व꣡सा꣢꣯नः । अ꣡त्क꣢꣯म् । सु꣣रभि꣢म् । सु꣣ । रभि꣢म् । दृ꣣शे꣢ । कम् । स्वः꣢ । न । ना꣡म꣢꣯ । ज꣣नत । प्रिया꣡णि꣢ ॥१८४७॥
स्वर रहित मन्त्र
ऊर्ध्वो गन्धर्वो अधि नाके अस्थात्प्रत्यङ्चित्रा बिभ्रदस्यायुधानि । वसानो अत्कꣳ सुरभिं दृशे कꣳ स्वा३र्ण नाम जनत प्रियाणि ॥१८४७॥
स्वर रहित पद पाठ
ऊर्ध्वः । गन्धर्वः । अधि । नाके । अस्थात् । प्रत्यङ् । प्रति । अङ् । चित्रा । बिभ्रत् । अस्य । आयुधानि । वसानः । अत्कम् । सुरभिम् । सु । रभिम् । दृशे । कम् । स्वः । न । नाम । जनत । प्रियाणि ॥१८४७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1847
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 13; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 7; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 13; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 7; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
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विषय - गन्धर्व की स्वर्ग-प्राप्ति
पदार्थ -
(गन्धर्वः) = [गां वेदवाचं धरति] वेदवाणी का धारण करनेवाला यह [गाव इन्द्रियाणि] इन्द्रियों को संयम में रखनेवाला व्यक्ति, जिसके लिए गत मन्त्र में 'यमस्य योनौ'='संयम के स्थान में' इन शब्दों का प्रयोग हुआ था । यह ज्ञानी व संयमी पुरुष (ऊर्ध्वः) = संसार के विषयों से ऊपर उठा हुआ (अधिनाके) = मोक्ष-सुख में (अस्थात्) = स्थित होता है।
यह गन्धर्व (प्रत्यङ्) = अपने अन्दर (चित्रा) = अद्भुत (अस्य आयुधानि) = अपने अस्त्रों को (बिभ्रत्) = धारण करता है। ‘ज्ञान, कर्म व उपासना' ये तीन इसके अस्त्र हैं। इनका अद्भुतत्व यही है कि ये काम-क्रोधादि सब आसुर वृत्तियों का सुन्दरता व पूर्णता से समापन कर देते हैं। यह गन्धर्व तो इस प्रकार (अत्कम्) = कवच को (वसानः) = धारण किये हुए होता है । यह कवच इसे काम-क्रोधादि के आक्रमण से सदा सुरक्षित करता है और यह गन्धर्व उस (सुरभिम्) = सुन्दर-ही- सुन्दर, देदीप्यमान [Shining] (कम्) = सुखस्वरूप प्रभु को (दृशे) = देखने में समर्थ होता है और (स्वः न नाम) = स्वर्गलोक की भाँति [नाम इति वाक्यालंकारे] (प्रियाणि) = आनन्दों को (जनत) = उत्पन्न करता है ।
संक्षेप में संयमी, ज्ञानी पुरुष, 'ज्ञान, कर्म व उपासना' रूप आयुधों को धारण किये हुए मोक्ष सुख में स्थित होता है । वासनाओं से सुरक्षित करनेवाले कवच को धारण किये हुए वह उस सुन्दर, सुखमय प्रभु का दर्शन करता है और स्वर्गीय आनन्दों का अनुभव करता है।
भावार्थ -
संयमी जीवन से मैं प्रभुदर्शन का पात्र बनूँ और मोक्षसुख का अनुभव करूँ।