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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1847
ऋषिः - वेनो भार्गवः
देवता - वेनः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम -
29
ऊ꣣र्ध्वो꣡ ग꣢न्ध꣣र्वो꣢꣫ अधि꣣ ना꣡के꣢ अस्थात्प्र꣣त्य꣢ङ्चि꣣त्रा꣡ बिभ्र꣢꣯द꣣स्या꣡यु꣢धानि । व꣡सा꣢नो꣣ अ꣡त्क꣢ꣳ सुर꣣भिं꣢ दृ꣣शे꣢ कꣳ स्वा३र्ण꣡ नाम꣢꣯ जनत प्रि꣣या꣡णि꣢ ॥१८४७॥
स्वर सहित पद पाठऊ꣣र्ध्वः꣢ । ग꣡न्धर्वः꣢ । अ꣡धि꣢꣯ । ना꣡के꣢꣯ । अ꣣स्थात् । प्रत्य꣢ङ् । प्र꣣ति । अ꣢ङ् । चि꣣त्रा । बि꣡भ्र꣢꣯त् । अ꣣स्य । आ꣡यु꣢꣯धानि । व꣡सा꣢꣯नः । अ꣡त्क꣢꣯म् । सु꣣रभि꣢म् । सु꣣ । रभि꣢म् । दृ꣣शे꣢ । कम् । स्वः꣢ । न । ना꣡म꣢꣯ । ज꣣नत । प्रिया꣡णि꣢ ॥१८४७॥
स्वर रहित मन्त्र
ऊर्ध्वो गन्धर्वो अधि नाके अस्थात्प्रत्यङ्चित्रा बिभ्रदस्यायुधानि । वसानो अत्कꣳ सुरभिं दृशे कꣳ स्वा३र्ण नाम जनत प्रियाणि ॥१८४७॥
स्वर रहित पद पाठ
ऊर्ध्वः । गन्धर्वः । अधि । नाके । अस्थात् । प्रत्यङ् । प्रति । अङ् । चित्रा । बिभ्रत् । अस्य । आयुधानि । वसानः । अत्कम् । सुरभिम् । सु । रभिम् । दृशे । कम् । स्वः । न । नाम । जनत । प्रियाणि ॥१८४७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1847
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 13; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 7; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 13; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 7; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अब मुक्तावस्था में जीवात्मा का स्वरूप वर्णित करते हैं।
पदार्थ
(ऊर्ध्वः) जागरूक और उन्नत, (गन्धर्वः) वाणी वा इन्द्रियों को धारण करनेवाला जीवात्मा (नाके अधि) मोक्षावस्था में (अस्थात्) स्थित होता है। वेन अर्थात् कमनीय परमेश्वर (अस्य) इस जीवात्मा के (प्रत्यङ्) अभिमुख होकर (चित्रा) विविध (आयुधा) रक्षा-साधनों को (बिभ्रत्) धारण करता है। तब मोक्षावस्था में जीवात्मा (दृशे कम्) परमात्मा के दर्शन के लिए (सुरभिम्) सद्गुणों से सुरभित (अत्कम्) स्वरूप को (वसानः) धारण करता हुआ (स्वः न) सूर्य के समान (प्रियाणि नाम) प्रिय तेजों को (जनत) प्रकट करता है ॥२॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥२॥
भावार्थ
मुक्तावस्था में जीवात्मा की लौकिक आकाङ्क्षाएँ समाप्त हो जाती हैं, तेजोमय होकर वह परमात्मा के साहचर्य से दिव्य आनन्द का अनुभव करता है ॥२॥
पदार्थ
(ऊर्ध्वः) चेतन आत्माओं में उत्कृष्ट या उन पर रक्षक (गन्धर्वः) गति करने वाले लोकों१ पिण्डों का धारणकर्ता परमात्मा (नाके-अधि प्रत्यङ्-अस्थात्) दुःखरहित नितान्त सुखपूर्ण मोक्षधाम में साक्षात् स्वरूप स्थित है (चित्रा-आयुधानि बिभ्रत्) भिन्न-भिन्न—आयु धारण करने वाले शरीरों को भरण—आत्माओं से पूरित करता हुआ विराजमान है (दृशे-अत्कं सुरभिं कं वसानः) आत्माओं को दिखाने भुगाने के लिये सर्वत्र प्राप्त शोभन सुख का आच्छादन करता हुआ (स्वर्ण नाम प्रियाणि जनत) सुनहरे आकर्षक नाम—नमाने वाले प्रिय भोग वस्तुओं को प्रकट करता है॥२॥
विशेष
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विषय
गन्धर्व की स्वर्ग-प्राप्ति
पदार्थ
(गन्धर्वः) = [गां वेदवाचं धरति] वेदवाणी का धारण करनेवाला यह [गाव इन्द्रियाणि] इन्द्रियों को संयम में रखनेवाला व्यक्ति, जिसके लिए गत मन्त्र में 'यमस्य योनौ'='संयम के स्थान में' इन शब्दों का प्रयोग हुआ था । यह ज्ञानी व संयमी पुरुष (ऊर्ध्वः) = संसार के विषयों से ऊपर उठा हुआ (अधिनाके) = मोक्ष-सुख में (अस्थात्) = स्थित होता है।
यह गन्धर्व (प्रत्यङ्) = अपने अन्दर (चित्रा) = अद्भुत (अस्य आयुधानि) = अपने अस्त्रों को (बिभ्रत्) = धारण करता है। ‘ज्ञान, कर्म व उपासना' ये तीन इसके अस्त्र हैं। इनका अद्भुतत्व यही है कि ये काम-क्रोधादि सब आसुर वृत्तियों का सुन्दरता व पूर्णता से समापन कर देते हैं। यह गन्धर्व तो इस प्रकार (अत्कम्) = कवच को (वसानः) = धारण किये हुए होता है । यह कवच इसे काम-क्रोधादि के आक्रमण से सदा सुरक्षित करता है और यह गन्धर्व उस (सुरभिम्) = सुन्दर-ही- सुन्दर, देदीप्यमान [Shining] (कम्) = सुखस्वरूप प्रभु को (दृशे) = देखने में समर्थ होता है और (स्वः न नाम) = स्वर्गलोक की भाँति [नाम इति वाक्यालंकारे] (प्रियाणि) = आनन्दों को (जनत) = उत्पन्न करता है ।
संक्षेप में संयमी, ज्ञानी पुरुष, 'ज्ञान, कर्म व उपासना' रूप आयुधों को धारण किये हुए मोक्ष सुख में स्थित होता है । वासनाओं से सुरक्षित करनेवाले कवच को धारण किये हुए वह उस सुन्दर, सुखमय प्रभु का दर्शन करता है और स्वर्गीय आनन्दों का अनुभव करता है।
भावार्थ
संयमी जीवन से मैं प्रभुदर्शन का पात्र बनूँ और मोक्षसुख का अनुभव करूँ।
विषय
missing
भावार्थ
(गन्धर्वः) गौ=किरणों के धारण करने हारे सूर्य के समान अपनी इन्द्रियों का धारण करने वाला वह वेन=मेधावी आत्मा प्रत्यक्ष रूप से (चित्रा) विचित्र दर्शनीय (आयुधानि) यम नियमादि साधनाओं को (विभ्रत्) धारण करता हुआ (कं) आनन्दमय, सुख रूप (स्वानः) सूर्य के समान तेजामय (नाम) परम रूप को (दृशं) देखने के लिये (अधिनाके) मोक्ष मार्ग में (अस्थात्) स्थिति प्राप्त करता है और (प्रियाणि) अपने प्रिय यथेष्ट कामनाओं को (जनयत) उत्पन्न करता है, यथेष्ट विचरता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१ अग्निः पावकः। २ सोभरिः काण्वः। ५, ६ अवत्सारः काश्यपः अन्ये च ऋषयो दृष्टलिङ्गाः*। ८ वत्सप्रीः। ९ गोषूक्तयश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ। १० त्रिशिरास्त्वाष्ट्रः सिंधुद्वीपो वाम्बरीषः। ११ उलो वातायनः। १३ वेनः। ३, ४, ७, १२ इति साम ॥ देवता—१, २, ८ अग्निः। ५, ६ विश्वे देवाः। ९ इन्द्रः। १० अग्निः । ११ वायुः । १३ वेनः। ३, ४, ७, १२ इतिसाम॥ छन्दः—१ विष्टारपङ्क्ति, प्रथमस्य, सतोबृहती उत्तरेषां त्रयाणां, उपरिष्टाज्ज्योतिः अत उत्तरस्य, त्रिष्टुप् चरमस्य। २ प्रागाथम् काकुभम्। ५, ६, १३ त्रिष्टुङ। ८-११ गायत्री। ३, ४, ७, १२ इतिसाम॥ स्वरः—१ पञ्चमः प्रथमस्य, मध्यमः उत्तरेषां त्रयाणा, धैवतः चरमस्य। २ मध्यमः। ५, ६, १३ धैवतः। ८-११ षड्जः। ३, ४, ७, १२ इति साम॥ *केषां चिन्मतेनात्र विंशाध्यायस्य, पञ्चमखण्डस्य च विरामः। *दृष्टिलिंगा दया० भाष्ये पाठः।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ मुक्तावस्थायां जीवात्मनः स्वरूपं वर्णयति।
पदार्थः
(ऊर्ध्वः) जागरूकः उन्नतश्च, (गन्धर्वः) गाः वाचः इन्द्रियाणि वा धरतीति तादृशो जीवात्मा (नाके अधि) मोक्षलोके (अस्यात्) तिष्ठति। वेनः (कान्तः) परमेश्वरः (अस्य) एतस्य जीवात्मनः (प्रत्यङ्) अभिमुखम् (चित्रा) चित्राणि विविधानि (आयुधा) आयुधानि रक्षासाधनानि (बिभ्रत्) धारयन् भवति। तदा मोक्षावस्थायां जीवात्मा (दृशे कम्) परमात्मदर्शनाय किल (सुरभिम्) सद्गुणैः सौरभमयं (अत्कम्) स्वरूपम् (वसानः) धारयन् (स्वः न) सूर्य इव (प्रियाणि नाम) प्रियाणि नामानि तेजांसि (जनत) प्रकटयति ॥२॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥२॥
भावार्थः
मुक्तावस्थायां जीवात्मनो लौकिक्य आकाङ्क्षाः समाप्यन्ते, तेजोमयः स परमात्मसाहचर्येण दिव्यमानन्दमनुभवति ॥२॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The wise soul that controls the organs of senses, as the Sun does his rays, manifestly wielding the wondrous, beautiful weapons of the Yamas and Niyamas, assuming its handsome pervading nature, full of joy, for seeing the Mighty God, Lustrous like the Sun, achieves stability on the path of salvation, and evolves its lovely aspirations.
Translator Comment
Yamas: Ahimsa, (Non-violence), Satya (Truth), Asteya (Non-theft), Brahmcharya (celibacy), Aprigraha (Renunciation).^Niyamas; Shauch (Purity), Santosh (contentment) Tapa (Austerity) Swadhyaya (study of scriptures) Ishwar Pranidhina (Resignation to the Will of God). These have been spoken of as the weapons of the soul for achieving salvation.
Meaning
High up over there abides the sun in the region of heavenly light. It bears wondrous weapons of divinity such as thunder and lightning. It wears a beautiful, fragrant form soothing for people to see, and like the light and bliss of heaven creates divine waters and many other dear divine gifts for life. (Rg. 10-123-7)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (ऊर्ध्वः) ચેતન આત્માઓમાં ઉત્કૃષ્ટ અથવા તેના પર રક્ષક (गन्धर्वः) ગતિ કરનારા લોકો પિંડોના ધારણકર્તા પરમાત્મા (नाके अधि प्रत्यङ् अस्थात्) દુ:ખ રહિત નિરંતર સુખપૂર્ણ મોક્ષધામમાં સાક્ષાત્ સ્વરૂપ સ્થિત છે. (चित्रा आयुधानि बिभ्रत्) જુદી જુદી આયુ ધારણ કરનારા શરીરોમાં ભરણ આત્માઓને પૂરિત કરતાં વિરાજમાન છે. (दृशे अत्कं सुरभिं कं वसानः) આત્માઓને દેખાડવા ભોગાવવાને માટે સર્વત્ર પ્રાપ્ત સુંદર સુખનું આચ્છાદન કરતાં (स्वर्ण नाम प्रियाणि जनत) સોનેરી આકર્ષક નામ નમાવનાર પ્રિય ભોગ વસ્તુઓને પ્રકટ કરે છે. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
मुक्तावस्थेत जीवात्म्याच्या लौकिक आकांक्षा समाप्त होतात, तेजोमय बनून तो परमात्म्याच्या साहचर्याने दिव्य आनंदाचा अनुभव घेतो. ॥२॥
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