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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1846
ऋषिः - वेनो भार्गवः देवता - वेनः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम -
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ना꣡के꣢ सुप꣣र्ण꣢꣫मुप꣣ य꣡त्पत꣢꣯न्तꣳ हृ꣣दा꣡ वेन꣢꣯न्तो अ꣣भ्य꣡च꣢क्षत त्वा । हि꣡र꣢ण्यपक्षं꣣ व꣡रु꣢णस्य दू꣣तं꣢ य꣣म꣢स्य꣣ यो꣡नौ꣢ शकु꣣नं꣡ भु꣢र꣣ण्यु꣢म् ॥१८४६॥

स्वर सहित पद पाठ

ना꣡के꣢꣯ । सु꣣पर्ण꣢म् । सु꣣ । पर्ण꣢म् । उ꣡प꣢꣯ । यत् । प꣡त꣢꣯न्तम् । हृ꣣दा꣢ । वे꣡न꣢꣯न्तः । अ꣣भ्य꣡चक्षत । अ꣣भि । अ꣣च꣢꣯क्षत । त्वा꣣ । हि꣡र꣢꣯ण्यपक्षम् । हि꣡र꣢꣯ण्य । प꣣क्षम् । व꣡रु꣢꣯ण्स्य । दू꣣त꣢म् । य꣣म꣡स्य꣢ । यो꣡नौ꣢꣯ । श꣣कुन꣢म् । भु꣣रण्यु꣢म् ॥१८४६॥


स्वर रहित मन्त्र

नाके सुपर्णमुप यत्पतन्तꣳ हृदा वेनन्तो अभ्यचक्षत त्वा । हिरण्यपक्षं वरुणस्य दूतं यमस्य योनौ शकुनं भुरण्युम् ॥१८४६॥


स्वर रहित पद पाठ

नाके । सुपर्णम् । सु । पर्णम् । उप । यत् । पतन्तम् । हृदा । वेनन्तः । अभ्यचक्षत । अभि । अचक्षत । त्वा । हिरण्यपक्षम् । हिरण्य । पक्षम् । वरुण्स्य । दूतम् । यमस्य । योनौ । शकुनम् । भुरण्युम् ॥१८४६॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1846
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 13; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 7; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
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पदार्थ -

इस मन्त्र का ऋषि 'वेन' है – प्रबल इच्छावाला । (हृदा वेनन्तः) = हृदय से तेरी प्राप्ति की प्रबल कामना करते हुए व्यक्ति ही हे प्रभो ! (त्वा) = आपको (अभ्यचक्षत) = देखते हैं। कैसे आपको ? । 

१. (नाके सुपर्णम्) = मोक्ष-सुख में उत्तम पालन करनेवाले को । जो भी जीव [वेन्-Reflect, consider, worship] उस प्रभु का चिन्तन व स्तुति करता हुआ संसार से ऊपर उठता है - और मोक्षलोक का अधिकारी बनता है, वह प्रभु के उत्तम पालन का भी साक्षात् करता है ।

२. (यत् उप-पतन्तम्) = समीप आते हुए आपको । यह वेन जितना - जितना प्रभु का चिन्तन करता है, उतना-उतना प्रभु को समीप आता अनुभव करता है । ('तदु अन्तिके') = वे प्रभु तो मेरे समीप हैं — ऐसा इसे अनुभव होता है।

३. (हिरण्यपक्षम्) = ज्योति का परिग्रह करनेवाले को [पक्ष परिग्रहे] । वे प्रभु ज्योतिर्मय हैं । उनकी समीपता में यह वेन भी अपनी ज्योति को बढ़ता देखता है ।

४. (वरुणस्य दूतम्) = श्रेष्ठता के सन्देशवाहक को । यह वेन प्रभु का चिन्तन करता है, इसे वे प्रभु श्रेष्ठता का सन्देश देते प्रतीत होते हैं ।

५. (यमस्य योनौ शकुनम्) = संयम के स्थान में शक्ति सम्पन्न बनानेवाले वे प्रभु हैं, अर्थात् अपने भक्त को संयमी बनाकर वे सशक्त कर देते हैं ।

६. (भुरण्युम्) = वस्तुतः वे प्रभु सबका भरण-पोषण करनेवाले हैं। इस रूप में वेन उस प्रभु का दर्शन करता है । 

भावार्थ -

मैं चिन्तन करूँ, उपासक बनूँ और प्रभु का दर्शन करूँ ।

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