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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1845
अ꣣य꣢ꣳ स꣣ह꣢स्रा꣣ प꣡रि꣢ यु꣣क्ता꣡ वसा꣢꣯नः꣣ सू꣡र्य꣢स्य भा꣣नुं꣢ य꣣ज्ञो꣡ दा꣢धार । स꣣हस्रदाः꣡ श꣢त꣣दा꣡ भू꣢रि꣣दा꣡वा꣢ ध꣣र्त्ता꣢ दि꣣वो꣡ भुवन꣢꣯स्य वि꣣श्प꣡तिः꣢ ॥१८४५
स्वर सहित पद पाठअ꣢य꣣म् । स꣣ह꣡स्रा꣢ । प꣡रि꣢꣯ । यु꣣क्ता꣡ । व꣡सा꣢꣯नः । सू꣡र्य꣢꣯स्य । भा꣣नु꣢म् । य꣣ज्ञः꣢ । दा꣣धार । सहस्रदाः꣢ । स꣣हस्र । दाः꣢ । श꣢तदाः꣢ । श꣣त । दाः꣢ । भू꣣रिदा꣡वा꣢ । भू꣣रि । दा꣡वा꣢꣯ । ध꣣र्ता꣢ । दि꣣वः꣢ । भु꣡व꣢꣯नस्य । वि꣣श्प꣡तिः꣢ ॥१८४५॥
स्वर रहित मन्त्र
अयꣳ सहस्रा परि युक्ता वसानः सूर्यस्य भानुं यज्ञो दाधार । सहस्रदाः शतदा भूरिदावा धर्त्ता दिवो भुवनस्य विश्पतिः ॥१८४५
स्वर रहित पद पाठ
अयम् । सहस्रा । परि । युक्ता । वसानः । सूर्यस्य । भानुम् । यज्ञः । दाधार । सहस्रदाः । सहस्र । दाः । शतदाः । शत । दाः । भूरिदावा । भूरि । दावा । धर्ता । दिवः । भुवनस्य । विश्पतिः ॥१८४५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1845
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 12; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 7; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
Acknowledgment
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 12; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 7; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
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विषय - स्वस्थ शरीर व दीप्त मस्तिष्क
पदार्थ -
(अयम्) = प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि यह सुपर्ण (युक्ता) = अपने साथ सम्बद्ध (सहस्त्रा) = हज़ारों व्यक्तियों को (परि) = चारों ओर (वसानः) = आच्छादित करता हुआ और (यज्ञ:) = इस प्रकार यज्ञमय जीवनवाला (सूर्यस्य भानुम्) = सूर्य की दीप्ति को (दाधार) = धारण करता है ।
सुपर्ण केवल अपना पालन नहीं करता, यह तो अपने आसपास के सभी व्यक्तियों को धारण करने का प्रयत्न करता है । औरों के जीवन को सुखी बनाने के द्वारा ही यह अपने जीवन को सुखी बनाता है। सूर्य का प्रकाश अपने लिए न होकर औरों के लिए होता है, इसी प्रकार इसकी शक्तियाँ भी औरों का धारण करती हैं। परिणामतः यह भी सूर्य के समान तेजस्वी बनता है ।
यह (स-हस्त्रदाः) = प्रसन्नता के साथ औरों को सहायता देनेवाला होता है । (शतदाः) = सौ-के-सौ वर्ष–आजीवन – यह औरों की सहायता करता है । (भूरिदावा) = इसका देने का प्रकार ऐसा होता है कि यह दान औरों का भरण-पोषण बड़े उत्तम ढंग से करता है [भूरि-भृ=धारण-पोषण]।
यह अपने निजू जीवन में (दिव:) = प्रकाश का (धर्ता) = धारण करनेवाला बनता है और (भुवनस्य) = [Abode, Residence] अपने निवास स्थानभूत इस शरीर का धारण करनेवाला होता है । यह मस्तिष्क को दीप्त रखता है और शरीर को स्वस्थ । इसी का परिणाम है कि यह (विश्पतिः) = सब प्रजाओं का पालन करनेवाला बनता है । जिस व्यक्ति का शरीर स्वस्थ नहीं वह शक्त्यभाव से लोकहित नहीं कर सकता और स्वस्थ व्यक्ति भी मस्तिष्क के प्रकाशमय न होने पर ग़लत दिशा में प्रयत्न करके लाभ के स्थान में हानि कर देता है । स्वस्थ व सज्ञान [सुलझा हुआ] यह सुपर्ण प्रसन्नतापूर्वक जीवनभर उत्तम ढंग से प्रजा के पालन-पोषण में प्रवृत्त रहता है ।
भावार्थ -
मैं मस्तिष्क में प्रकाश और शरीर में स्वास्थ्य को धारण करूँ, जिससे 'विश्पति' बन पाऊँ ।
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