Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1844
अ꣣प्सु꣡ रेतः꣢꣯ शिश्रिये वि꣣श्व꣡रू꣢पं꣣ ते꣡जः꣢ पृथि꣣व्या꣢꣫मधि꣣ य꣡त्स꣢म्ब꣣भू꣡व꣢ । अ꣣न्त꣡रि꣢क्षे꣣ स्वं꣡ म꣢हि꣣मा꣢नं꣣ मि꣡मा꣢नः꣣ क꣡नि꣢क्रन्ति꣣ वृ꣢ष्णो꣣ अ꣡श्व꣢स्य꣣ रे꣡तः꣢ ॥१८४४
स्वर सहित पद पाठअप्सु꣢ । रे꣡तः꣢꣯ । शि꣣श्रिये । विश्व꣡रू꣢पम् । वि꣣श्व꣢ । रू꣣पम् । ते꣡जः꣢꣯ । पृ꣣थिव्या꣢म् । अ꣡धि꣢꣯ । यत् । सं꣣बभू꣡व꣢ । स꣣म् । बभू꣡व꣢ । अ꣣न्त꣡रि꣢क्षे । स्वम् । म꣣हिमा꣡न꣢म् । मि꣡मा꣢꣯नः । क꣡नि꣢꣯क्रन्ति । वृ꣡ष्णः꣢꣯ । अ꣡श्व꣢꣯स्य । रे꣡तः꣢꣯ ॥१८४४॥
स्वर रहित मन्त्र
अप्सु रेतः शिश्रिये विश्वरूपं तेजः पृथिव्यामधि यत्सम्बभूव । अन्तरिक्षे स्वं महिमानं मिमानः कनिक्रन्ति वृष्णो अश्वस्य रेतः ॥१८४४
स्वर रहित पद पाठ
अप्सु । रेतः । शिश्रिये । विश्वरूपम् । विश्व । रूपम् । तेजः । पृथिव्याम् । अधि । यत् । संबभूव । सम् । बभूव । अन्तरिक्षे । स्वम् । महिमानम् । मिमानः । कनिक्रन्ति । वृष्णः । अश्वस्य । रेतः ॥१८४४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1844
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 12; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 7; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
Acknowledgment
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 12; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 7; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
Acknowledgment
विषय - सुपर्ण के जीवन की चार बातें
पदार्थ -
(अप्सु) = जलों में (रेतः) = वह तेज (शिश्रिये) = निवास करता था (यत्) = जो अब (पृथिव्यां अधि) = इस पार्थिव शरीर में (सम्बभूव) = सम्यक् प्रकट हुआ है, जिसे (विश्वरूपं तेजः) = शरीर में अनेक प्रकार से व्यापक तेज का नाम दिया गया है।
उपनिषद् में हम पढ़ते हैं कि 'आप: रेतो भूत्वा'=जल 'वीर्य' का रूप धारण करके शरीर में रहने लगे। ये जल ही जीव की २४ प्रकार की शक्ति के रूप में हो गये। 'आपोमयाः प्राणाः'=‘प्राण
आपोमय हैं' ये शब्द भी ऊपर की भावना को ही दूसरे प्रकार से कह रहे हैं । शरीर में यह शक्ति २४ प्रकार से विभक्त होकर कार्य करती है ।
(वृष्णः) = शक्तिशाली (अश्वस्य) = कार्यों में शीघ्रता से व्याप्त होनेवाले पुरुष का यह (रेतः) = तेज (अन्तरिक्षे) = हृदयान्तरिक्ष में (स्वमहिमानम्) = अपनी महिमा को (मिमान:) = निर्मित करता हुआ (कनिक्रन्ति) = प्रभु की महिमा का उच्चारण करता है, अर्थात् यह विश्वरूप तेज १. मनुष्य को शक्तिशाली बनाता है [वृष्ण:], २. उसमें स्फूर्ति पैदा करता है, जिसके कारण इसे आलस्य कभी नहीं घेरता [अश्वस्य], ३. इसके हृदय को विशाल बनाता है। विश्वरूप तेजवाला व्यक्ति कभी कृपण व संकुचित हृदय नहीं होता [महिमानम्], ४. यह सदा प्रभु की स्तुति करनेवाला होता है । निराशावाद की मनोवृत्ति से यह सदा दूर रहता है । आशावाद से पूर्ण यह आस्तिक मनोवृत्ति को धारण करता है ।
भावार्थ -
मैं जलों के ठीक प्रयोग से शक्तिशाली बनूँ, मेरा जीवन शक्ति सम्पन्न, स्फूर्तिमय, विशाल व पूजा की वृत्तिवाला हो ।
इस भाष्य को एडिट करें