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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1843
अ꣣भि꣢ वा꣣जी꣢ वि꣣श्व꣡रू꣢पो ज꣣नि꣡त्र꣢ꣳ हि꣣र꣢ण्य꣣यं बि꣢भ्र꣣द꣡त्क꣢ꣳ सुप꣣र्णः꣢ । सू꣡र्य꣢स्य भा꣣नु꣡मृ꣢तु꣣था꣡ वसा꣢꣯नः꣣ प꣡रि꣢ स्व꣣यं꣡ मेध꣢꣯मृ꣣ज्रो꣡ ज꣢जान ॥१८४३
स्वर सहित पद पाठअ꣣भि꣢ । वा꣣जी꣢ । वि꣣श्व꣡रू꣢पः । वि꣣श्व꣢ । रू꣣पः । ज꣡नित्र꣢म् । हि꣣रण्य꣡य꣢म् । बि꣡भ्र꣢꣯त् । अ꣡त्क꣢꣯म् । सु꣣पर्णः꣢ । सु꣣ । प꣢र्णः । सू꣡र्य꣢꣯स्य । भा꣣नु꣢म् । ऋ꣣तुथा꣢ । व꣡सा꣢꣯नः । प꣡रि꣢꣯ । स्व꣣य꣢म् । मे꣡ध꣢꣯म् । ऋ꣣ज्रः꣢ । ज꣣जान ॥१८४३॥
स्वर रहित मन्त्र
अभि वाजी विश्वरूपो जनित्रꣳ हिरण्ययं बिभ्रदत्कꣳ सुपर्णः । सूर्यस्य भानुमृतुथा वसानः परि स्वयं मेधमृज्रो जजान ॥१८४३
स्वर रहित पद पाठ
अभि । वाजी । विश्वरूपः । विश्व । रूपः । जनित्रम् । हिरण्ययम् । बिभ्रत् । अत्कम् । सुपर्णः । सु । पर्णः । सूर्यस्य । भानुम् । ऋतुथा । वसानः । परि । स्वयम् । मेधम् । ऋज्रः । जजान ॥१८४३॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1843
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 12; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 7; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 12; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 7; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
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विषय - सूर्य के तेज का धारण
पदार्थ -
सुपर्ण – प्रभु की प्रेरणा को सुननेवाला यह वातायन 'सुपर्ण' बन जाता है - बड़े उत्तम ढंग से [सु] आसुर वृत्तियों के आक्रमण से अपना पालन करनेवाला [पर्ण] होता है । यह (वाजी) = शक्तिशाली तथा (विश्वरूपः) = सब पदार्थों का सुन्दर निरूपण करनेवालाहोता है । वस्तुतः शक्ति और ज्ञान इसके दो सुन्दर पंखों के समान होते हैं— इन्हीं से यह ऊपर की ओर उड़ता है, ऊर्ध्वगतिवाला होता है। (जनित्रम्) = विकासवाले (हिरण्ययम्) = तेजोरूप (अत्कम्) = कवच को (अभिबिभ्रत्) = धारण करता हुआ यह सचमुच (सुपर्ण:) = सुपर्ण होता है । शक्ति और ज्ञान - दोनों हिरण्मय - तेजोरूप हैं। ये दोनों ही तेज इसके कवच बन जाते हैं । एक तेज इसे व्याधियों से बचाता है तो दूसरा तेज इसे आधियों से बचाता है। एक [शक्ति] शरीर-रोगों के लिए कवच है तो दूसरा [ज्ञान] मानस रोगों के लिए । इस कवच से सुरक्षित यह सचमुच सुपर्ण है ।
सूर्य के तेज को – (ऋतु-था) = समयानुसार प्रत्येक कार्य को करने के कारण (सूर्यस्य भानुम्) = सूर्य के तेज को (वसान:) = धारण करता हुआ यह सुपर्ण (ऋज्रः) = ऊर्ध्व गतिवाला होता है - सदा उन्नतिपथ पर आगे बढ़ता है ।
यज्ञमय -यह ऋज्र उन्नति-पथ पर आगे बढ़ता है का अभिप्राय यह है कि (स्वयम्) = आत्मा से, अपने से (मेधम्) = यज्ञ को (परिजजान) = सर्वतः प्रादुर्भूत करता है, अर्थात् अपने जीवन को यज्ञमय बना डालता है। यज्ञमय जीवन बनाना ही उन्नति करना है। जो जितना - जितना स्वार्थ को जीतकर परार्थ को अपनाता जाता है, वह उतना उतना उन्नत होता जाता है ।
भावार्थ -
हम प्रभु की प्रेरणा को सुनेंगे तो प्रस्तुत मन्त्र के ऋषि ‘सुपर्ण' बनेंगे। सब व्यसनों से बचने के कारण शक्ति हमारा एक पंख होगा तो ज्ञान दूसरा । इस शक्ति व ज्ञानमय कवच को धारण करके हम सूर्य की भाँति चमक रहे होंगे। सूर्य की भाँति ही हमारे कर्म भी स्वार्थशून्य हो जाएँगे।
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