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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1842
ऋषिः - उलो वातायनः देवता - वायुः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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य꣢द꣣दो꣡ वा꣢त ते गृ꣣हे꣢३꣱ऽमृ꣢तं꣣ नि꣡हि꣢तं꣣ गु꣡हा꣢ । त꣡स्य꣢ नो देहि जी꣣व꣡से꣢ ॥१८४२॥

स्वर सहित पद पाठ

य꣢त् । अ꣣दः꣢ । वा꣣त । ते । गृहे꣢ । अ꣣मृ꣡त꣢म् । अ꣣ । मृ꣡त꣢꣯म् । नि꣡हि꣢꣯तम् । नि । हि꣣तम् । गु꣡हा꣢꣯ । त꣡स्य꣢꣯ । नः꣣ । धेहि । जीव꣡से꣢ ॥१८४२॥


स्वर रहित मन्त्र

यददो वात ते गृहे३ऽमृतं निहितं गुहा । तस्य नो देहि जीवसे ॥१८४२॥


स्वर रहित पद पाठ

यत् । अदः । वात । ते । गृहे । अमृतम् । अ । मृतम् । निहितम् । नि । हितम् । गुहा । तस्य । नः । धेहि । जीवसे ॥१८४२॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1842
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 11; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 7; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
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पदार्थ -

हे (वात) = प्रेरणे! (ते गृहे) = तेरे ग्रहण करने में (यत्) - जो (अदः) = वह (अमृतम्) = अमरता या अविनाश (गुहा-निहितम्) = छिपा हुआ सुरक्षित रखा है (तस्य) = उस अमरता को (जीवसे) = जीवन के लिए (नः) = हमें (धेहि) = धारण कराइए ।

जो भी व्यक्ति इस प्रेरणा का ग्रहण करता है वह सचमुच उस अमरता का ही ग्रहण कर रहा होता है जो इस प्रेरणा में सुरक्षितरूप से रक्खी हुई है। प्रभु की प्रेरणा को सुननेवाला व्यक्ति कभी अधर्म की ओर नहीं झुकता । अधर्म ही वह वस्तु है जो मनुष्य का धारण न कर विनाश करती है । गिरानेवाली होने के कारण ही इसका नाम 'पातक' है । यह अघ- पाप सचमुच अघ- पीड़ा ही है। यह दुरित मनुष्य की बड़ी दुर्गति कर देता है। प्रेरणा इस विनाश, पतन, पीड़ा व दुर्गति से बचानेवाली है। इसी से 'इसमें अमृत छिपा है' ऐसा कहा गया है ।

इस प्रेरणा का सुनना जीवन का हेतु है और न सुनना ही मृत्यु का कारण है । जो व्यक्ति वातायन=प्रेरणा को ही अपना अयन बनाता है वह 'उल' होता है— जीवन के सब विघ्नों को भस्मसात् कर देनेवाला होता है ।

भावार्थ -

हम प्रभु - प्रेरणा को सुनें और अमरता का लाभ करें ।

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