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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1843
    ऋषिः - सुपर्णः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम -
    31

    अ꣣भि꣢ वा꣣जी꣢ वि꣣श्व꣡रू꣢पो ज꣣नि꣡त्र꣢ꣳ हि꣣र꣢ण्य꣣यं बि꣢भ्र꣣द꣡त्क꣢ꣳ सुप꣣र्णः꣢ । सू꣡र्य꣢स्य भा꣣नु꣡मृ꣢तु꣣था꣡ वसा꣢꣯नः꣣ प꣡रि꣢ स्व꣣यं꣡ मेध꣢꣯मृ꣣ज्रो꣡ ज꣢जान ॥१८४३

    स्वर सहित पद पाठ

    अ꣣भि꣢ । वा꣣जी꣢ । वि꣣श्व꣡रू꣢पः । वि꣣श्व꣢ । रू꣣पः । ज꣡नित्र꣢म् । हि꣣रण्य꣡य꣢म् । बि꣡भ्र꣢꣯त् । अ꣡त्क꣢꣯म् । सु꣣पर्णः꣢ । सु꣣ । प꣢र्णः । सू꣡र्य꣢꣯स्य । भा꣣नु꣢म् । ऋ꣣तुथा꣢ । व꣡सा꣢꣯नः । प꣡रि꣢꣯ । स्व꣣य꣢म् । मे꣡ध꣢꣯म् । ऋ꣣ज्रः꣢ । ज꣣जान ॥१८४३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभि वाजी विश्वरूपो जनित्रꣳ हिरण्ययं बिभ्रदत्कꣳ सुपर्णः । सूर्यस्य भानुमृतुथा वसानः परि स्वयं मेधमृज्रो जजान ॥१८४३


    स्वर रहित पद पाठ

    अभि । वाजी । विश्वरूपः । विश्व । रूपः । जनित्रम् । हिरण्ययम् । बिभ्रत् । अत्कम् । सुपर्णः । सु । पर्णः । सूर्यस्य । भानुम् । ऋतुथा । वसानः । परि । स्वयम् । मेधम् । ऋज्रः । जजान ॥१८४३॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1843
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 12; मन्त्र » 1
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 7; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    प्रथम मन्त्र में अग्नि नाम से जगदीश्वर के गुण-कर्मों का वर्णन है।

    पदार्थ

    (वाजी) बलवान् (विश्वरूपः) सब रूपों को देनेवाला, (सुपर्णः) श्रेष्ठ पालनकर्ता, (ऋज्रः) सर्वव्यापक वह अग्निनामक परमेश्वर (जनित्रम्) वृष्टि के उत्पादक, (हिरण्ययम्) सुनहरे (अत्कम्) विद्युद्रूप वज्र को (बिभ्रत्) धारण करता हुआ, (ऋतुथा) ऋतुओं के अनुकूल (सूर्यस्य) सूर्य के (भानुम्) तेज को (वसानः) बसाता हुआ (स्वयम्) अपने आप (मेघम्) सृष्टि-यज्ञ को (जजान) चला रहा है ॥१॥

    भावार्थ

    संसार में जो कुछ भी प्राकृतिक घटना-चक्र चल रहा है, उस सबको परमेश्वर ही सञ्चालित करता है ॥१॥

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    पदार्थ

    (सुपर्णः) शोभनपालन गुणवाला परमात्मा (वाजी) अमृत अन्नभोग का स्वामी२ (विश्वरूपः) विश्व को रूप देनेवाला—विश्व रचयिता (हिरण्ययं जनित्रम्) सौवर्ण—सुनहरे जनन साधन—(अत्कम्-अभि बिभ्रत्) गमक—अण्ड—ब्रह्माण्ड को सर्व प्रकार धारण करने के हेतु, तथा (ऋतुथा सूर्यस्य भानुं वसानः) ऋतु के अनुसार सूर्य के प्रकाश को वसाने फैलाने के हेतु (ऋज्रः) तेजस्वी परमात्मा (मेधं स्वयं परि जजान) सङ्गमनीय संसारयज्ञ३ को स्वयं परिपूर्ण करता है॥१॥

    विशेष

    ऋषिः—सुपर्णः (सुपर्णवान्-उपासना द्वारा सम्यक् पालनकर्ता परमात्मा को धारण करने वाला उपासक)॥<br>देवता—अग्निः (ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मा)॥ छन्दः—त्रिष्टुप्॥

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    विषय

    सूर्य के तेज का धारण

    पदार्थ

    सुपर्ण – प्रभु की प्रेरणा को सुननेवाला यह वातायन 'सुपर्ण' बन जाता है - बड़े उत्तम ढंग से [सु] आसुर वृत्तियों के आक्रमण से अपना पालन करनेवाला [पर्ण] होता है । यह (वाजी) = शक्तिशाली तथा (विश्वरूपः) = सब पदार्थों का सुन्दर निरूपण करनेवालाहोता है । वस्तुतः शक्ति और ज्ञान इसके दो सुन्दर पंखों के समान होते हैं— इन्हीं से यह ऊपर की ओर उड़ता है, ऊर्ध्वगतिवाला होता है। (जनित्रम्) = विकासवाले (हिरण्ययम्) = तेजोरूप (अत्कम्) = कवच को (अभिबिभ्रत्) = धारण करता हुआ यह सचमुच (सुपर्ण:) = सुपर्ण होता है । शक्ति और ज्ञान - दोनों हिरण्मय - तेजोरूप हैं। ये दोनों ही तेज इसके कवच बन जाते हैं । एक तेज इसे व्याधियों से बचाता है तो दूसरा तेज इसे आधियों से बचाता है। एक [शक्ति] शरीर-रोगों के लिए कवच है तो दूसरा [ज्ञान] मानस रोगों के लिए । इस कवच से सुरक्षित यह सचमुच सुपर्ण है ।

    सूर्य के तेज को – (ऋतु-था) = समयानुसार प्रत्येक कार्य को करने के कारण (सूर्यस्य भानुम्) = सूर्य के तेज को (वसान:) = धारण करता हुआ यह सुपर्ण (ऋज्रः) = ऊर्ध्व गतिवाला होता है - सदा उन्नतिपथ पर आगे बढ़ता है । 

    यज्ञमय -यह ऋज्र उन्नति-पथ पर आगे बढ़ता है का अभिप्राय यह है कि (स्वयम्) = आत्मा से, अपने से (मेधम्) = यज्ञ को (परिजजान) = सर्वतः प्रादुर्भूत करता है, अर्थात् अपने जीवन को यज्ञमय बना डालता है। यज्ञमय जीवन बनाना ही उन्नति करना है। जो जितना - जितना स्वार्थ को जीतकर परार्थ को अपनाता जाता है, वह उतना उतना उन्नत होता जाता है ।

    भावार्थ

    हम प्रभु की प्रेरणा को सुनेंगे तो प्रस्तुत मन्त्र के ऋषि ‘सुपर्ण' बनेंगे। सब व्यसनों से बचने के कारण शक्ति हमारा एक पंख होगा तो ज्ञान दूसरा । इस शक्ति व ज्ञानमय कवच को धारण करके हम सूर्य की भाँति चमक रहे होंगे। सूर्य की भाँति ही हमारे कर्म भी स्वार्थशून्य हो जाएँगे।

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    विषय

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    भावार्थ

    (विश्वरूपः) नाना प्रकार के रूपों को धारण करने हारा जीवात्मा (वाजी) ज्ञानवान और बलवान् होकर (सुपर्णः) उत्तम प्रज्ञान और पालन करने के सामर्थ्य से सम्पन्न, या उत्तम मार्गगामी (ऋज्रः) कर्माशयों को परिपाक करके (हिरण्ययं) तेजः सम्पन्न (जनित्रम्) अपने मूलभूत (अत्कं) आत्मस्वरूप को (विभ्रत्) परिपुष्ट करता हुआ (ऋतुथा) प्राणों के बलपर अथवा नियत काल के अनुसार स्वयं (सूर्यस्य) आदित्य के (भानुं) कान्ति और तेज को (वसानः) धारण करता हुआा (स्वयं) आप से आप (मेघं) उस पवित्र परमपुरुष को (परिजजान) ज्ञान कर लेता है, प्राप्त होजाता है।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ अग्निः पावकः। २ सोभरिः काण्वः। ५, ६ अवत्सारः काश्यपः अन्ये च ऋषयो दृष्टलिङ्गाः*। ८ वत्सप्रीः। ९ गोषूक्तयश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ। १० त्रिशिरास्त्वाष्ट्रः सिंधुद्वीपो वाम्बरीषः। ११ उलो वातायनः। १३ वेनः। ३, ४, ७, १२ इति साम ॥ देवता—१, २, ८ अग्निः। ५, ६ विश्वे देवाः। ९ इन्द्रः। १० अग्निः । ११ वायुः । १३ वेनः। ३, ४, ७, १२ इतिसाम॥ छन्दः—१ विष्टारपङ्क्ति, प्रथमस्य, सतोबृहती उत्तरेषां त्रयाणां, उपरिष्टाज्ज्योतिः अत उत्तरस्य, त्रिष्टुप् चरमस्य। २ प्रागाथम् काकुभम्। ५, ६, १३ त्रिष्टुङ। ८-११ गायत्री। ३, ४, ७, १२ इतिसाम॥ स्वरः—१ पञ्चमः प्रथमस्य, मध्यमः उत्तरेषां त्रयाणा, धैवतः चरमस्य। २ मध्यमः। ५, ६, १३ धैवतः। ८-११ षड्जः। ३, ४, ७, १२ इति साम॥ *केषां चिन्मतेनात्र विंशाध्यायस्य, पञ्चमखण्डस्य च विरामः। *दृष्टिलिंगा दया० भाष्ये पाठः।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    प्रथमे मन्त्रेऽग्निनाम्ना जगदीश्वरस्य गुणकर्माणि वर्णयति।

    पदार्थः

    (वाजी) बलवान् (विश्वरूपः) विश्वं रूपं यस्मात् सः, (सुपर्णः) सुपालकः, (ऋज्रः) सर्वगतः सोऽग्निः परमेश्वरः। [अर्जति गच्छतीति ऋज्रः। ऋज गत्यादिषु, भ्वादिः। ‘ऋज्रेन्द्राग्र०’ उ० २।२९ इति निपातः।] जनित्रम् वृष्ट्युत्पादकम्, (हिरण्ययम्) हिरण्मयम् (अत्कम्) विद्युद्वज्रम्। [अत्क इति वज्रनाम। निघं० २।२] (बिभ्रत्) धारयन्, (ऋतुथा) ऋत्वनुकूलम् (सूर्यस्य) आदित्यस्य (भानुम्) तेजः (वसानः) निवासयन् (स्वयम्) स्वात्मना (मेघम्) सृष्टियज्ञम् (जजान) सञ्चालयति ॥१॥

    भावार्थः

    जगति यत्किञ्चिदपि प्राकृतिकं घटनाचक्रं प्रवर्तते तत्सर्वं परमेश्वरकृतमेव ॥१॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The soul, assuming diverse forms, full of knowledge and strength, treading the noble path of righteousness, fully understanding the significance of actions, full of brilliance, completely realising its true nature, clothed at fit times with the lustre of the Sun, through self effort, attains to the Pure, Mighty God.

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    Meaning

    The potent, non-stop, procreative, all-form eagle-bird of life, bearing its own golden generative principle and form, wearing light of the sun, itself emerges according to the time and season of karma and creates its own yajnic form of existence.

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (सुपर्णः) સુંદર પાલન ગુણવાળા પરમાત્મા (वाजी) અમૃત અન્નભોગના સ્વામી (विश्वरूपः) વિશ્વને રૂપ આપનાર-વિશ્વના રચયિતા (हिरण्ययं जनित्रम्) સૌવર્ણ-સોનેરી જનન સાધન, (अत्कम् अभि बिभ्रत्) ગમક-અંડ-બ્રહ્માંડને સર્વ રીતે ધારણ કરવા માટે; તથા (ऋतुथा सूर्यस्य भानुं वसानः) ૠતુ અનુસાર સૂર્યના પ્રકાશને વસાવવા-ફેલાવવાને માટે (ऋज्रः) તેજસ્વી પરમાત્મા (मेधं स्वयं परि जजान) સંગમનીય સંસારયજ્ઞને સ્વયં પરિપૂર્ણ કરે છે. (૧)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    संसारात जो प्राकृतिक घटनाक्रम चालू आहे, त्यांना परमेश्वरच संचालित करतो. ॥१॥

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