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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1844
ऋषिः - सुपर्णः
देवता - अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम -
28
अ꣣प्सु꣡ रेतः꣢꣯ शिश्रिये वि꣣श्व꣡रू꣢पं꣣ ते꣡जः꣢ पृथि꣣व्या꣢꣫मधि꣣ य꣡त्स꣢म्ब꣣भू꣡व꣢ । अ꣣न्त꣡रि꣢क्षे꣣ स्वं꣡ म꣢हि꣣मा꣢नं꣣ मि꣡मा꣢नः꣣ क꣡नि꣢क्रन्ति꣣ वृ꣢ष्णो꣣ अ꣡श्व꣢स्य꣣ रे꣡तः꣢ ॥१८४४
स्वर सहित पद पाठअप्सु꣢ । रे꣡तः꣢꣯ । शि꣣श्रिये । विश्व꣡रू꣢पम् । वि꣣श्व꣢ । रू꣣पम् । ते꣡जः꣢꣯ । पृ꣣थिव्या꣢म् । अ꣡धि꣢꣯ । यत् । सं꣣बभू꣡व꣢ । स꣣म् । बभू꣡व꣢ । अ꣣न्त꣡रि꣢क्षे । स्वम् । म꣣हिमा꣡न꣢म् । मि꣡मा꣢꣯नः । क꣡नि꣢꣯क्रन्ति । वृ꣡ष्णः꣢꣯ । अ꣡श्व꣢꣯स्य । रे꣡तः꣢꣯ ॥१८४४॥
स्वर रहित मन्त्र
अप्सु रेतः शिश्रिये विश्वरूपं तेजः पृथिव्यामधि यत्सम्बभूव । अन्तरिक्षे स्वं महिमानं मिमानः कनिक्रन्ति वृष्णो अश्वस्य रेतः ॥१८४४
स्वर रहित पद पाठ
अप्सु । रेतः । शिश्रिये । विश्वरूपम् । विश्व । रूपम् । तेजः । पृथिव्याम् । अधि । यत् । संबभूव । सम् । बभूव । अन्तरिक्षे । स्वम् । महिमानम् । मिमानः । कनिक्रन्ति । वृष्णः । अश्वस्य । रेतः ॥१८४४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1844
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 12; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 7; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 12; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 7; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में परमेश्वर की महिमा वर्णित है।
पदार्थ
(अप्सु) नदियों में जो (विश्वरूपम्) सब रूपोंवाला (रेतः) जल (शिश्रिये) आश्रित है, (यत्) और जो (पृथिव्याम् अधि) भूमि के अन्दर (तेजः) तेज (संबभूव) उत्पन्न हुआ है, उस सबको (ऋज्रः) सर्वव्यापक अग्नि नामक जग्दीश्वर ने ही (जजान) उत्पन्न किया है। [यहाँ ‘ऋज्रः’ और ‘जजान’ ये दोनों पद पूर्व मन्त्र से लाये गये हैं।] वही जगदीश्वर (अन्तरिक्षे) अन्तरिक्ष में (स्वम्) अपनी (महिमानम्) महिमा को (मिमानः) प्रकट कर रहा है। उसी की महिमा से (वृष्णः) वर्षा करनेवाले (अश्वस्य) व्यापक बादल का (रेतः) जल (कनिक्रन्ति) बहुत अधिक गरजता है ॥२॥
भावार्थ
नदियों में, भूमि पर, अन्तरिक्ष में, द्युलोक में, सूर्य में, बादल में सभी जगह जगदीश्वर की ही महिमा दृग्गोचर हो रही है ॥२॥
पदार्थ
(अप्सु रेतः शिश्रिये) ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मा ब्रह्माण्ड या सृष्टि के रचनार्थ द्युलोक४ में रेत—प्राण५ को आश्रय देता है—(पृथिव्याम्-अधि विश्वरूपे तेजः-यत् सम्बभूव) पृथिवी में सब प्राणी वनस्पति को रूप देने वाले तेज को जोकि जब प्रकट हुआ (अन्तरिक्षे स्वं महिमानं मिमानः) अन्तरिक्ष में निज महिमा को महत्त्व को मापता हुआ—फैलाता हुआ (वृष्णः-अश्वस्य रेतः-कनिक्रन्ति) सुखवर्षक व्यापक परमात्मा बल प्रगति=प्रदान करता है॥२॥
विशेष
<br>
विषय
सुपर्ण के जीवन की चार बातें
पदार्थ
(अप्सु) = जलों में (रेतः) = वह तेज (शिश्रिये) = निवास करता था (यत्) = जो अब (पृथिव्यां अधि) = इस पार्थिव शरीर में (सम्बभूव) = सम्यक् प्रकट हुआ है, जिसे (विश्वरूपं तेजः) = शरीर में अनेक प्रकार से व्यापक तेज का नाम दिया गया है।
उपनिषद् में हम पढ़ते हैं कि 'आप: रेतो भूत्वा'=जल 'वीर्य' का रूप धारण करके शरीर में रहने लगे। ये जल ही जीव की २४ प्रकार की शक्ति के रूप में हो गये। 'आपोमयाः प्राणाः'=‘प्राण
आपोमय हैं' ये शब्द भी ऊपर की भावना को ही दूसरे प्रकार से कह रहे हैं । शरीर में यह शक्ति २४ प्रकार से विभक्त होकर कार्य करती है ।
(वृष्णः) = शक्तिशाली (अश्वस्य) = कार्यों में शीघ्रता से व्याप्त होनेवाले पुरुष का यह (रेतः) = तेज (अन्तरिक्षे) = हृदयान्तरिक्ष में (स्वमहिमानम्) = अपनी महिमा को (मिमान:) = निर्मित करता हुआ (कनिक्रन्ति) = प्रभु की महिमा का उच्चारण करता है, अर्थात् यह विश्वरूप तेज १. मनुष्य को शक्तिशाली बनाता है [वृष्ण:], २. उसमें स्फूर्ति पैदा करता है, जिसके कारण इसे आलस्य कभी नहीं घेरता [अश्वस्य], ३. इसके हृदय को विशाल बनाता है। विश्वरूप तेजवाला व्यक्ति कभी कृपण व संकुचित हृदय नहीं होता [महिमानम्], ४. यह सदा प्रभु की स्तुति करनेवाला होता है । निराशावाद की मनोवृत्ति से यह सदा दूर रहता है । आशावाद से पूर्ण यह आस्तिक मनोवृत्ति को धारण करता है ।
भावार्थ
मैं जलों के ठीक प्रयोग से शक्तिशाली बनूँ, मेरा जीवन शक्ति सम्पन्न, स्फूर्तिमय, विशाल व पूजा की वृत्तिवाला हो ।
विषय
missing
भावार्थ
(विश्वरूपं तेजः) नाना प्रकार के नर, तिर्यक् आदि रूप धारण करने हारे जीवात्मारूप ज्योति ने (अप्सु) जलों में (रेतः) वीर्यं रूप होकर (शिश्रिये) आश्रय प्राप्त किया (यत्) पुनः उसके बाद वह (पृथिव्याम्) पृथिवी में (अधि सम्बभूव) जीवरूप से उत्पन्न हुआ उसके बाद वह (स्वं) अपने (महिमानं) सामर्थ्य को (अन्तरिक्ष) अन्तरिक्ष में भी (मिमानः) व्यापारित करता हुआ अर्थात् पक्षी या सूर्य रूप में प्रकट होकर (वृष्णः) उस वीर्यसेक्ता सब के पिता (अश्वस्य) परमात्मा के (रेतः) वीर्य की (कनिक्रान्ति) महिमा का वर्णन करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१ अग्निः पावकः। २ सोभरिः काण्वः। ५, ६ अवत्सारः काश्यपः अन्ये च ऋषयो दृष्टलिङ्गाः*। ८ वत्सप्रीः। ९ गोषूक्तयश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ। १० त्रिशिरास्त्वाष्ट्रः सिंधुद्वीपो वाम्बरीषः। ११ उलो वातायनः। १३ वेनः। ३, ४, ७, १२ इति साम ॥ देवता—१, २, ८ अग्निः। ५, ६ विश्वे देवाः। ९ इन्द्रः। १० अग्निः । ११ वायुः । १३ वेनः। ३, ४, ७, १२ इतिसाम॥ छन्दः—१ विष्टारपङ्क्ति, प्रथमस्य, सतोबृहती उत्तरेषां त्रयाणां, उपरिष्टाज्ज्योतिः अत उत्तरस्य, त्रिष्टुप् चरमस्य। २ प्रागाथम् काकुभम्। ५, ६, १३ त्रिष्टुङ। ८-११ गायत्री। ३, ४, ७, १२ इतिसाम॥ स्वरः—१ पञ्चमः प्रथमस्य, मध्यमः उत्तरेषां त्रयाणा, धैवतः चरमस्य। २ मध्यमः। ५, ६, १३ धैवतः। ८-११ षड्जः। ३, ४, ७, १२ इति साम॥ *केषां चिन्मतेनात्र विंशाध्यायस्य, पञ्चमखण्डस्य च विरामः। *दृष्टिलिंगा दया० भाष्ये पाठः।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमेश्वरस्य महिमा वर्ण्यते।
पदार्थः
(अप्सु) नदीषु यत् (विश्वरूपम्) सर्वरूपम् (रेतः) जलम्। [रेतः इत्युदकनाम। निघं० १।५] (शिश्रिये) आश्रितमस्ति, (यत्) यच्च (पृथिव्याम् अधि) भूम्याम् (तेजः) औष्ण्यम् (सं बभूव) उत्पन्नमस्ति, तत् सर्वम् (ऋज्रः) सर्वव्यापकः अग्निर्जगदीश्वर एव (जजान) उत्पादितवानस्ति इति पूर्वमन्त्रादाकृष्यते। स एव जगदीश्वरः (अन्तरिक्षे स्वम्) स्वकीयम् (महिमानम्) महत्त्वम् (मिमानः) प्रकटयन् अस्ति। तस्यैव महिम्ना (वृष्णः) वर्षकरम् (अश्वस्य) पर्जन्यस्य (रेतः) बलम् (कनिक्रन्ति) भृशं गर्जति। [क्रदि आह्वाने रोदने च, भ्वादिः, यङ्लुकि चाक्रन्ति इति अभ्यासस्य निगागमः] ॥२॥
भावार्थः
सरित्सु पृथिव्यामन्तरिक्षे दिवि सूर्ये पर्जन्ये सर्वत्र जगदीश्वरस्यैव महिमा दृग्गोचरो भवति ॥२॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The multiform soul, lays its seed in waters. It then appears on the Earth. Establishing its greatness in the mid-air, it sings the glory of the strength of God, the Father of all.
Meaning
The seed of life lay in the waters, universal form, light and lustre of being which emerged on the earth. It established its own potential and power in the firmament. Thus does the seed of potent life raise and realize its voice and will to be in existence (bearing light of sun, lying in space, spatial waters, the oceans, in the firmament and on the earth).
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (अप्सु रेतः शिश्रिये) જ્ઞાનપ્રકાશ-સ્વરૂપ પરમાત્મા બ્રહ્માંડ અર્થાત્ સૃષ્ટિની રચના માટે દ્યુલોકમાં રેત-પ્રાણને આશ્રય આપે છે, (पृथिव्याम् अधि विश्वरूपे तेजः यत् सम्बभूव) પૃથિવીનાં સર્વ પ્રાણી, વનસ્પતિને રૂપ આપનાર તેજને જે જ્યારે પ્રકટ કરતાં (अन्तरिक्षे स्वं महिमानं मिमानः) અન્તરિક્ષમાં પોતાના મહિમાનું મહત્ત્વને માપતાં-ફેલાવતાં (वृष्णः अश्वस्य रेतः कनिक्रन्ति) સુખવર્ષક વ્યાપક પરમાત્મા બળ પ્રગતિ = પ્રદાન કરે છે. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
नद्यांमध्ये, भूमीवर, अंतरिक्षात, द्युलोकात, सूर्यात, मेघात सर्व स्थानी जगदीश्वराची महिमाच दृष्टिगोचर होते. ॥२॥
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