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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1845
    ऋषिः - सुपर्णः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम -
    38

    अ꣣य꣢ꣳ स꣣ह꣢स्रा꣣ प꣡रि꣢ यु꣣क्ता꣡ वसा꣢꣯नः꣣ सू꣡र्य꣢स्य भा꣣नुं꣢ य꣣ज्ञो꣡ दा꣢धार । स꣣हस्रदाः꣡ श꣢त꣣दा꣡ भू꣢रि꣣दा꣡वा꣢ ध꣣र्त्ता꣢ दि꣣वो꣡ भुवन꣢꣯स्य वि꣣श्प꣡तिः꣢ ॥१८४५

    स्वर सहित पद पाठ

    अ꣢य꣣म् । स꣣ह꣡स्रा꣢ । प꣡रि꣢꣯ । यु꣣क्ता꣡ । व꣡सा꣢꣯नः । सू꣡र्य꣢꣯स्य । भा꣣नु꣢म् । य꣣ज्ञः꣢ । दा꣣धार । सहस्रदाः꣢ । स꣣हस्र । दाः꣢ । श꣢तदाः꣢ । श꣣त । दाः꣢ । भू꣣रिदा꣡वा꣢ । भू꣣रि । दा꣡वा꣢꣯ । ध꣣र्ता꣢ । दि꣣वः꣢ । भु꣡व꣢꣯नस्य । वि꣣श्प꣡तिः꣢ ॥१८४५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयꣳ सहस्रा परि युक्ता वसानः सूर्यस्य भानुं यज्ञो दाधार । सहस्रदाः शतदा भूरिदावा धर्त्ता दिवो भुवनस्य विश्पतिः ॥१८४५


    स्वर रहित पद पाठ

    अयम् । सहस्रा । परि । युक्ता । वसानः । सूर्यस्य । भानुम् । यज्ञः । दाधार । सहस्रदाः । सहस्र । दाः । शतदाः । शत । दाः । भूरिदावा । भूरि । दावा । धर्ता । दिवः । भुवनस्य । विश्पतिः ॥१८४५॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1845
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 12; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 7; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आगे फिर उसी विषय का वर्णन है।

    पदार्थ

    (यज्ञः) पूजनीय यह अग्नि नामक जगदीश्वर (युक्ताः) आकर्षण के बल से आपस में जुड़े हुए (सहस्रा) सहस्रों नक्षत्रों को (वसानः) बसाता हुआ (सूर्यस्य) सूर्य के (भानुम्) तेज को (दाधार) धारण कर रहा है। यह जगदीश्वर (सहस्रदाः) सहस्र वस्तुओं का दाता, (शतदा) सौ रत्नों का दाता, (भूरिदावा) बहुत-बहुत दूध-दही-मक्खन आदि का और विद्या-धर्म आदि का दाता, (दिवः धर्ता) द्युलोक का धारणकर्ता और (भुवनस्य) ब्रह्माण्ड का (विश्पतिः) प्रजापति है ॥३॥

    भावार्थ

    जगदीश्वर ही हमारे सौरमण्डल को, असंख्य तारों को, सारे ही ब्रह्माण्ड को धारण करता हुआ हमें सब सम्पदाएँ देता है ॥३॥

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    पदार्थ

    (अयं यज्ञः) यह सङ्गमनीय परमात्मा (युक्ता सहस्रा परिवसानः) असंख्य उपयुक्त या अपने साथ संयुक्त गुण बलों को समाविष्ट करता हुआ (भानुं सूर्यस्य ‘सूर्यं’ दाधार) प्रकाशमान सूर्य को धारण करता है (दिवः-धर्ता) मोक्षधाम का धारणकर्ता (भुवनस्य विश्पतिः) जगत् का प्रजापालक परमात्मा (शतदाः-सहस्रदाः-भूरिदावा) सैंकड़ों सुखों का देने वाला सहस्रों सुखों का देने वाला बहुत ही सुखों का देने वाला है॥३॥

    विशेष

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    विषय

    स्वस्थ शरीर व दीप्त मस्तिष्क

    पदार्थ

    (अयम्) = प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि यह सुपर्ण (युक्ता) = अपने साथ सम्बद्ध (सहस्त्रा) = हज़ारों व्यक्तियों को (परि) = चारों ओर (वसानः) =  आच्छादित करता हुआ और (यज्ञ:) = इस प्रकार यज्ञमय जीवनवाला (सूर्यस्य भानुम्) = सूर्य की दीप्ति को (दाधार) = धारण करता है ।

    सुपर्ण केवल अपना पालन नहीं करता, यह तो अपने आसपास के सभी व्यक्तियों को धारण करने का प्रयत्न करता है । औरों के जीवन को सुखी बनाने के द्वारा ही यह अपने जीवन को सुखी बनाता है। सूर्य का प्रकाश अपने लिए न होकर औरों के लिए होता है, इसी प्रकार इसकी शक्तियाँ भी औरों का धारण करती हैं। परिणामतः यह भी सूर्य के समान तेजस्वी बनता है ।

    यह (स-हस्त्रदाः) = प्रसन्नता के साथ औरों को सहायता देनेवाला होता है । (शतदाः) = सौ-के-सौ वर्ष–आजीवन – यह औरों की सहायता करता है । (भूरिदावा) = इसका देने का प्रकार ऐसा होता है कि यह दान औरों का भरण-पोषण बड़े उत्तम ढंग से करता है [भूरि-भृ=धारण-पोषण]।

    यह अपने निजू जीवन में (दिव:) = प्रकाश का (धर्ता) = धारण करनेवाला बनता है और (भुवनस्य) = [Abode, Residence] अपने निवास स्थानभूत इस शरीर का धारण करनेवाला होता है । यह मस्तिष्क को दीप्त रखता है और शरीर को स्वस्थ । इसी का परिणाम है कि यह (विश्पतिः) = सब प्रजाओं का पालन करनेवाला बनता है । जिस व्यक्ति का शरीर स्वस्थ नहीं वह शक्त्यभाव से लोकहित नहीं कर सकता और स्वस्थ व्यक्ति भी मस्तिष्क के प्रकाशमय न होने पर ग़लत दिशा में प्रयत्न करके लाभ के स्थान में हानि कर देता है । स्वस्थ व सज्ञान [सुलझा हुआ] यह सुपर्ण प्रसन्नतापूर्वक जीवनभर उत्तम ढंग से प्रजा के पालन-पोषण में प्रवृत्त रहता है ।

    भावार्थ

    मैं मस्तिष्क में प्रकाश और शरीर में स्वास्थ्य को धारण करूँ, जिससे 'विश्पति' बन पाऊँ ।

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    विषय

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    भावार्थ

    वह विश्वरूप अग्नि (यज्ञः) आत्मारूप (दिवः) स्वर्ग का (धर्त्ता) धारक और (भुवनस्य) इस लोक की (विश्पतिः) समस्त देहधारी प्रजाओं का परिपालक, (सहस्रदाः) सहस्रों पदार्थों का दाता (शतदाः) सैंकड़ों पदार्थों का दाता और (भूरिदावा) हरेक वस्तु की बहुतसी मात्रा का दाता, अथवा बहुत बार देने वाला (सहस्रा) हजारों (युक्ता) देहों को (वसानः) धारण करता हुआ (सूर्यस्य) सूर्य के (भानु) तेज को भी (दाधार) धारण करता है। यह समष्टि रूप से जीव शक्ति का वर्णन किया है जिसका संक्षेप से वर्णन श्वेताश्वतर उपनिषद् में इस रूप से किया हैं। गुणान्वयो यः फलकर्मकर्त्ता कृतस्य तस्यैव से चोपभोक्ता। स विश्वरूपस्त्रिगुणस्त्रिवर्त्मा प्राणाधिपः संचरीत स्वकर्मभिः॥ अंगुष्ठमात्रो रवितुल्यरूपः संकल्पाहंकारसमन्वितो यः। बुद्धेर्गुणेनात्मगुणेन चैव आराग्रमात्रो ह्यवरोऽपि दृष्टः॥ संकल्पनस्पर्शनदृष्टिमोहैर्ग्रासाम्बुवृष्द्-यात्मविवृद्धिजन्म। कर्मानुगान्यनुक्रमेण देही स्थानेषु रूपाण्यभिसंप्रपद्यते॥ स्थूलानि सूक्ष्माणि बहूनि चैव रूपाणि देही स्वगुणैवृणोति। क्रियागुणैरात्मगुणश्च तेषां संयोगहेतुरपराऽपि दृष्टः॥ अनाद्यनन्तं कलिलस्य मध्ये विश्वस्य स्त्रष्टारमनेकरूपम्। विश्वस्यैकं परिवेष्टितारं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः [ श्वेता० अ० ५ ]॥

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ अग्निः पावकः। २ सोभरिः काण्वः। ५, ६ अवत्सारः काश्यपः अन्ये च ऋषयो दृष्टलिङ्गाः*। ८ वत्सप्रीः। ९ गोषूक्तयश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ। १० त्रिशिरास्त्वाष्ट्रः सिंधुद्वीपो वाम्बरीषः। ११ उलो वातायनः। १३ वेनः। ३, ४, ७, १२ इति साम ॥ देवता—१, २, ८ अग्निः। ५, ६ विश्वे देवाः। ९ इन्द्रः। १० अग्निः । ११ वायुः । १३ वेनः। ३, ४, ७, १२ इतिसाम॥ छन्दः—१ विष्टारपङ्क्ति, प्रथमस्य, सतोबृहती उत्तरेषां त्रयाणां, उपरिष्टाज्ज्योतिः अत उत्तरस्य, त्रिष्टुप् चरमस्य। २ प्रागाथम् काकुभम्। ५, ६, १३ त्रिष्टुङ। ८-११ गायत्री। ३, ४, ७, १२ इतिसाम॥ स्वरः—१ पञ्चमः प्रथमस्य, मध्यमः उत्तरेषां त्रयाणा, धैवतः चरमस्य। २ मध्यमः। ५, ६, १३ धैवतः। ८-११ षड्जः। ३, ४, ७, १२ इति साम॥ *केषां चिन्मतेनात्र विंशाध्यायस्य, पञ्चमखण्डस्य च विरामः। *दृष्टिलिंगा दया० भाष्ये पाठः।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनरपि तमेव विषयमाह।

    पदार्थः

    (यज्ञः) यजनीयः एषोऽग्निर्जगदीश्वरः (युक्ता) युक्तानि आकर्षणबलेन परस्परसम्बद्धानि, (सहस्रा) सहस्राणि नक्षत्राणि (वसानः) निवासयन् (सूर्यस्य) आदित्यस्य (भानुम्) तेजः (दाधार) दधार, धारयति। [‘तुजादीनां दीर्घोऽभ्यासस्य’। अ० ६।१।७ इत्यभ्यासदीर्घः।] अयम् जगदीश्वरः (सहस्रदाः) सहस्रपदार्थानां दाता, (शतदा) शतरत्नानां दाता, (भूरिदावा) भूरेः प्रचुरस्य दुग्धदधिनवनीतादेः विद्याधर्मादेश्च दाता, (दिवः धर्ता) द्युलोकस्य धारयिता, (भुवनस्य) ब्रह्माण्डस्य च (विश्पतिः) प्रजापतिः अस्ति ॥३॥

    भावार्थः

    जगदीश्वर एवास्माकं सौरमण्डलमसंख्यानि नक्षत्राणि निखिलमेव ब्रह्माण्डं धारयन्नस्मभ्यं सर्वाः सम्पदः प्रयच्छति ॥३॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    This soul, the supporter of heavens, nourisher of the inhabitants of the world, giver of ample gifts in hundreds, thousands, assuming thousand robes that suit it, upholds also the light of Sun.

    Translator Comment

    Robes means bodies.

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    Meaning

    This Agni, self-refulgent light and life of the existence, pervading infinite forms in union with it, worthy of worship and communion by yajna and meditation, bears and sustains the light of the sun. It is a giver, thousandfold, hundredfold, infinite. It is the sustainer of heavens, the entire universe, and it is the master, fatherly ruler and promoter of the people of the world.

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (अयं यज्ञः) એ સંગમનીય પરમાત્મા (युक्त सहसा परिवसानः) અસંખ્ય ઉપયુક્ત અથવા પોતાની સાથે સંયુક્ત ગુણ બળનો સમાવેશ કરતાં (भानुं सूर्यस्य "सूर्य" दाधार) પ્રકાશમાન સૂર્યને ધારણ કરે છે. (दिवः धर्ता) મોક્ષધામના ધારણકર્તા (भुवनस्य विश्पतिः) જગત્ના પ્રજાપાલક પરમાત્મા (शतदाः सहस्रदाः भूरिदावा) સેંકડો સુખોના દાતા, હજારો સુખોના દાતા બહુજ-અનેક સુખોને આપનાર છે. (૩)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जगदीश्वरच आमच्या सौरमंडलाला, असंख्य ताऱ्यांना, संपूर्ण ब्रह्मांडाला धारण करत, आम्हाला सर्व संपदा देतो. ॥३॥

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