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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1854
ऋषिः - अप्रतिरथ ऐन्द्रः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम -
2
गो꣣त्रभि꣡दं꣢ गो꣣वि꣢दं꣣ व꣡ज्र꣢बाहुं꣣ ज꣡य꣢न्त꣣म꣡ज्म꣢ प्रमृ꣣ण꣢न्त꣣मो꣡ज꣢सा । इ꣣म꣡ꣳ स꣢जाता꣣ अ꣡नु꣢ वीरयध्व꣣मि꣡न्द्र꣢ꣳ सखायो꣣ अ꣢नु꣣ स꣡ꣳ र꣢भध्वम् ॥१८५४॥
स्वर सहित पद पाठगो꣣त्रभि꣡द꣢म् । गो꣣त्र । भि꣡द꣢꣯म् । गो꣣वि꣡द꣢म् । गो꣣ । वि꣡द꣢꣯म् । व꣡ज्र꣢꣯बाहुम् । व꣡ज्र꣢꣯ । बा꣣हुम् । ज꣡य꣢꣯न्तम् । अ꣡ज्म꣢꣯ । प्र꣣मृण꣡न्त꣢म् । प्र꣣ । मृण꣡न्त꣢꣯म् । ओ꣡ज꣢꣯सा । इ꣣म꣢म् । स꣣जाताः । स । जाताः । अ꣡नु꣢꣯ । वी꣣रयध्वम् । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । स꣣खायः । स । खायः । अ꣡नु꣢꣯ । सम् । र꣣भध्वम् ॥१८५४॥
स्वर रहित मन्त्र
गोत्रभिदं गोविदं वज्रबाहुं जयन्तमज्म प्रमृणन्तमोजसा । इमꣳ सजाता अनु वीरयध्वमिन्द्रꣳ सखायो अनु सꣳ रभध्वम् ॥१८५४॥
स्वर रहित पद पाठ
गोत्रभिदम् । गोत्र । भिदम् । गोविदम् । गो । विदम् । वज्रबाहुम् । वज्र । बाहुम् । जयन्तम् । अज्म । प्रमृणन्तम् । प्र । मृणन्तम् । ओजसा । इमम् । सजाताः । स । जाताः । अनु । वीरयध्वम् । इन्द्रम् । सखायः । स । खायः । अनु । सम् । रभध्वम् ॥१८५४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1854
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 21; खण्ड » 1; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 21; खण्ड » 1; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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विषय - इन्द्र क्या करता है ? धन के Complex से ऊपर To follow whom ? A man can do what a man has done
पदार्थ -
प्रभु कहते हैं—हे (सजाताः) = समान जन्मवाले जीवो ! (इयम्) = इस इन्द्र के (अनुवीरयध्वम्) = अनुसार तुम भी वीरतापूर्ण कर्म करो । उस इन्द्र के जो १. (गोत्रभिदम्) = [गोत्र-wealth] धन का विदारण करनेवाला है, अर्थात् हिरण्मय पात्र द्वारा डाले जानेवाले आवरण को सुदूर नष्ट करनेवाला है। २. (गोविदम्) = ज्ञान को प्राप्त करनेवाला है। धन के लोभ को दूर करके ही ज्ञान प्राप्त होता है। ३. (वज्रबाहुम्) = जिसकी बाहु में वज्र है, 'वज गतौ' से वज्र बनता है, 'बाह्र प्रयत्ने' से बाहु । वज्रबाहुं की भावना यही है कि गतिशील होने के कारण जो सदा प्रयत्नशील है । ४. (अज्म जयन्तम्) = युद्ध को जीतनेवाला है। निरन्तर क्रियाशीलता ने ही इसे वासना-संग्राम में विजयी बनाया है । ५. (ओजसा प्रमृणन्तम्) = जो [क्रियाशीलता से उत्पन्न] ओज के द्वारा काम-क्रोधादि शत्रुओं को कुचल रहा है। वस्तुत: इन पाँच विशेषताओंवाला व्यक्ति ही इन्द्र है और इस इन्द्र के समान जन्म लेनेवाले सभी को चाहिए कि वे भी इन्द्र के समान ही वीर बनें और संग्राम में शत्रुओं को कुचल डालें । प्रभु कहते हैं कि हे (सखायः) = इन्द्र के समान ख्यानवाले जीवो ! (इन्द्रम् अनु) = इस इन्द्र के अनुसार (संरभध्वम्) = दृढाङ्ग Robust बनों, बहादुरी का परिचय दो । इन्द्र असुरों का संहार करता है तुम भी उसके सजात - समान जन्मवाले (सखा) = समान ख्यान-[नाम] - वाले होते हुए क्या ऐसा न करोगे ? इन्द्र के कर्म सदा बलवाले हैं। क्या तुम निर्बलता प्रकट करोगे? नहीं, तुम भी उसके अनुसार वीर बनो । जो इन्द्र ने किया है वह तुम भी कर सकते हो। तुम भी तो इन्द्र हो – तभी तो महेन्द्र [परमात्मा] के उपासक बने हो । प्रभु का उपासक कायर नहीं होता, अतः वीर बनों, बहादुरी का परिचय दो और वासनारूप शत्रुओं को कुचल डालो।
भावार्थ -
हम इन्द्र हैं – हम असुरों का संहार करनेवाले हैं । धन के आकर्षण से हम ऊपर उठेंगे और ऊँचे-से-ऊँचे ज्ञान को प्राप्त करेंगे ।
टिप्पणी -
नोट – यह इन्द्र भी तुम्हारे जैसा ही एक मनुष्य है, (सजाता:) = तुम इसके समान जन्मवाले हो (सखायः) = तुम इसके समान ख्यानवाले हो । एक ही योनि में तुमने जन्म लिया है, एक ही शिक्षणालय में तुमने शिक्षा पाई है, वह विजेता बना है— उसने धन के complex को जीत लिया है । तुम भी धन से तो नहीं, परन्तु धन के लोभ से ऊपर उठकर वेदज्ञान को प्राप्त करनेवाले बनो ।