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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1855
ऋषिः - अप्रतिरथ ऐन्द्रः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम -
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अ꣣भि꣢ गो꣣त्रा꣢णि꣣ स꣡ह꣢सा꣣ गा꣡ह꣢मानोऽद꣣यो꣢ वी꣣रः꣢ श꣣त꣡म꣢न्यु꣣रि꣡न्द्रः꣢ । दु꣣श्च्यवनः꣡ पृ꣢तना꣣षा꣡ड꣢यु꣣ध्यो꣢३ऽस्मा꣢क꣣ꣳ से꣡ना꣢ अवतु꣣ प्र꣢ यु꣣त्सु꣢ ॥१८५५॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣣भि꣢ । गो꣣त्रा꣡णि꣢ । स꣡ह꣢꣯सा । गा꣡ह꣢꣯मानः । अ꣣दयः꣢ । अ꣣ । दयः꣢ । वी꣣रः꣢ । श꣣त꣡म꣢न्युः । श꣣त꣢ । म꣣न्युः । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । दु꣣श्च्यवनः꣢ । दुः꣣ । च्यवनः꣢ । पृ꣣तनाषा꣢ट् । पृ꣣तना । षा꣢ट् । अ꣣युध्यः꣢ । अ꣣ । युध्यः꣢ । अ꣣स्मा꣡क꣢म् । से꣡नाः꣢꣯ । अ꣣वतु । प्र꣢ । यु꣡त्सु꣢ ॥१८५५॥


स्वर रहित मन्त्र

अभि गोत्राणि सहसा गाहमानोऽदयो वीरः शतमन्युरिन्द्रः । दुश्च्यवनः पृतनाषाडयुध्यो३ऽस्माकꣳ सेना अवतु प्र युत्सु ॥१८५५॥


स्वर रहित पद पाठ

अभि । गोत्राणि । सहसा । गाहमानः । अदयः । अ । दयः । वीरः । शतमन्युः । शत । मन्युः । इन्द्रः । दुश्च्यवनः । दुः । च्यवनः । पृतनाषाट् । पृतना । षाट् । अयुध्यः । अ । युध्यः । अस्माकम् । सेनाः । अवतु । प्र । युत्सु ॥१८५५॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1855
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 21; खण्ड » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
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पदार्थ -

(इन्द्रः) = इन्द्रियों का अधिष्ठाता जीव (गोत्राणि) = धनों को (सहसा) = प्रसन्नतापूर्वक [with a smiling face] (अभिगाहमान:) = सर्वतः अवगाहन करता हुआ, अर्थात् सब सुपथों से प्राप्त करता हुआ (अदयः) = [देङ् रक्षणे] उन्हें अपने पास सुरक्षित रखनेवाला नहीं होता। क्या पेट, जो रुधिर बनता है, उस रुधिर को अपने पास रख लेता है ? अपने पास न रखने से ही वह वस्तुतः स्वस्थ रहता है । इसी प्रकार यह इन्द्र धनों को कमाता है, उनमें अवगाहन करता है-rolls in wealth, परन्तु उन्हें जोड़कर अपने पास नहीं रख लेता, इसीलिए तो वह प्रसन्न भी रहता है । (वीरः) = यह दानवीर बनता है । धन के प्रति आसक्ति न होने से यह कमाता है और देता है (शतमन्युः) = यह सैकड़ों क्रतुओं व प्रज्ञानोंवाला होता है । धनों का यह यज्ञों व ज्ञानप्राप्ति में विनियोग करता ।

(दुश्च्यवनः) = यह अपने इस यज्ञ-मार्ग से सुगमता से हटाया नहीं जा सकता। धन का लोभ इसे अयज्ञिय नहीं बना पाता यह (पृतनाषाट्) = काम-क्रोधादि शत्रु-सेनाओं का पराभव करनेवाला होता है (अयुध्यः) = काम-क्रोधादि इसे कभी युद्ध में पराजित नहीं कर पाते ।

यह इन्द्र (प्रयुत्सु) = इन उत्कृष्ट आध्यात्मिक संग्रामों में (अस्माकं सेना) = हमारी दिव्य गुणों की सेनाओं (अवतु) = सुरक्षित करे । काम-क्रोधादि का पराजय हो, प्रेम व मित्रता की भावना की विजय हो ।

भावार्थ -

हम धन कमाएँ, परन्तु उसे जोड़ें नहीं, जिससे हमारे दिव्य गुण उसमें नष्ट न हो जाएँ ।

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