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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1856
ऋषिः - अप्रतिरथ ऐन्द्रः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम -
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इ꣡न्द्र꣢ आसां ने꣣ता꣢꣫ बृह꣣स्प꣢ति꣣र्द꣡क्षि꣢णा य꣣ज्ञः꣢ पु꣣र꣡ ए꣢तु꣣ सो꣡मः꣢ । दे꣣वसेना꣡ना꣢मभिभञ्जती꣣नां꣡ जय꣢꣯न्तीनां म꣣रु꣡तो꣢ य꣣न्त्व꣡ग्र꣢म् ॥१८५६॥

स्वर सहित पद पाठ

इ꣡न्द्रः꣢꣯ । आ꣣साम् । नेता꣢ । बृ꣡हः꣢꣯ । प꣡तिः꣢꣯ । द꣡क्षि꣢꣯णा । य꣣ज्ञः꣢ । पु꣣रः꣢ । ए꣣तु । सो꣡मः꣢꣯ । दे꣣वसेना꣡ना꣢म् । दे꣣व । सेना꣡ना꣢म् । अ꣣भिभञ्जतीना꣢म् । अ꣣भि । भञ्जतीना꣢म् । ज꣡य꣢꣯न्तीनाम् । म꣣रु꣡तः꣢ । य꣣न्तु । अ꣡ग्र꣢꣯म् ॥१८५६॥


स्वर रहित मन्त्र

इन्द्र आसां नेता बृहस्पतिर्दक्षिणा यज्ञः पुर एतु सोमः । देवसेनानामभिभञ्जतीनां जयन्तीनां मरुतो यन्त्वग्रम् ॥१८५६॥


स्वर रहित पद पाठ

इन्द्रः । आसाम् । नेता । बृहः । पतिः । दक्षिणा । यज्ञः । पुरः । एतु । सोमः । देवसेनानाम् । देव । सेनानाम् । अभिभञ्जतीनाम् । अभि । भञ्जतीनाम् । जयन्तीनाम् । मरुतः । यन्तु । अग्रम् ॥१८५६॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1856
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 21; खण्ड » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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पदार्थ -

देवसेनाएँ – दिव्य और आसुर गुणों को वेद में ‘देवसेना' व ‘असुरसेना' कहा गया है। ये देवसेनाएँ प्रबल होकर असुरों का पराजय करती हैं। क्रोध पर दया विजय पाती है, लोभ पर सन्तोष व दान, और काम प्रेम के रूप में परिवर्तित हो जाता है । (देवसेनानाम्) = इन देवसेनाओं के, (अभिभञ्जतीनाम्) = जो चारों ओर आसुर भावनाओं का विदारण व भङ्ग कर रही हैं और (जयन्तीनाम्) = आसुरी वृत्तियों पर विजय पाती चलती हैं, (अग्रम्) = आगे (मरुतः यन्तु) = मरुत् - प्राणों की साधना करनेवाले मनुष्य चलें, अर्थात् ये देवसेनाएँ प्राण-साधना करनेवालों के पीछे चला करती हैं। प्राणायाम से इन्द्रियों के दोष क्षीण होते हैं, मन का मैल नष्ट होता है और गन्दगी में उत्पन्न होनेवाले मच्छरों की भाँति अपवित्रता से जन्म लेनेवाली आसुर वृत्तियाँ समाप्त हो जाती हैं । एवं, स्पष्ट है कि मरुतों की प्राण-साधना देव-सेनाओं के विजय के लिए आवश्यक है ।

(आसाम्) = इन विजयशील देव-सेनाओं का (नेता) = सेनापति (इन्द्रः) = इन्द्र है । इन्द्र है ‘इन्द्रियों का अधिष्ठाता', जो इन्द्रियों का दास न होकर ‘हृषीकेश' है । हृषीक - इन्द्रिय, ईश- स्वामी । देवराट् यह इन्द्र ही है। यदि जीभ ने चाहा और हमने खाया, आँख ने चाहा है और हमने देखा, कान ने चाहा और हमने सुना तब तो हम इन इन्द्रियों के दास बन जाएँगे, हम इन्द्र न रहेंगे ।

देवसेना के प्रमुख व्यक्ति – इस देव सेना के (पुरः) = प्रथम स्थान में – अग्रस्थान में (एतु) = चलें । कौन ?

१. (बृहस्पतिः) = ब्रह्मणस्पति - ज्ञान का स्वामी, देवताओं का गुरु, ज्ञानियों का भी ज्ञानी । दिव्य गुणों में ज्ञान का सर्वोच्च स्थान है। वास्तविकता तो यह है कि ज्ञान के अभाव में ही तो कामादि वासनाएँ पनपती हैं। ज्ञानाग्नि इन्हें भस्म कर देती है। कामादि को भस्म करके ज्ञान मनुष्य को पवित्र बनाता है । यह बृहस्पति ही ऊर्ध्वादिक् का अधिपति है । ज्ञान से ही मनुष्य अध्यात्म उन्नति की चरम सीमा पर पहुँचता है। देव तो स्वयं दीप्त हैं औरों को ज्ञान-दीप्ति से द्योतित करते हैं। ('देवो दीपनाद्वा द्योतनाद्वा')

२. (दक्षिणा) = दान । दान लोभ से विपरीत वृत्ति का नाम है। लोभ व्यसन-वृक्ष का मूल है । दान उसके मूल का अवदान -खण्डन करता है । देव इसीलिए सदा दिया करते हैं, 'देवो दानात्' । 

३. (यज्ञः) - दिव्य गुणों की सेना में प्रथम स्थान ज्ञान का है और द्वितीय दान का तो तृतीय स्थान यज्ञ का है। यज्ञ की मौलिक भावना नि:स्वार्थ कर्म है। देव यज्ञशील होते हैं, वे तो हैं ही 'हविर्भुक्' । 

४. (सोमः) = सौम्यता चौथा देव है। सौम्यता यह चौथा होता हुआ भी सर्वाधिक महत्त्व रखता है। सारे दिव्य गुणों के होने पर भी यदि यह सौम्यता न हो तो वे सब दिव्य गुण अखरने लगते हैं। गीता में दैवी सम्पत्ति का चरमोत्कर्ष 'नातिमानिता' में है— यहाँ 'सोम'= सौम्य बनने में । सोम का दूसरा अर्थ vitality=शक्ति semen भी है। मनुष्य ने शक्ति का संयम करके ही दिव्य गुणों को विकसित करना है। यही ब्रह्मचर्य है। ब्रह्म को प्राप्त करने का मार्ग है। 

भावार्थ -

हम प्राण- साधना करें, जिससे हममें दिव्य गुण उत्पन्न हों । इन्द्रियों के अधिष्ठाता बनें, जिससे देवसेनाओं के सेनापति बनें | ज्ञान, दान, नि:स्वार्थता व सौम्यता इन चार दिव्य गुणों को न भूलें ।

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