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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1857
ऋषिः - अप्रतिरथ ऐन्द्रः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम -
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इ꣡न्द्र꣢स्य꣣ वृ꣢ष्णो꣣ व꣡रु꣢णस्य꣣ रा꣡ज्ञ꣢ आदि꣣त्या꣡नां꣢ म꣣रु꣢ता꣣ꣳ श꣡र्ध꣢ उ꣣ग्र꣢म् । म꣣हा꣡म꣢नसां भुवनच्य꣣वा꣢नां꣣ घो꣡षो꣢ दे꣣वा꣢नां꣣ ज꣡य꣢ता꣣मु꣡द꣢स्थात् ॥१८५७॥

स्वर सहित पद पाठ

इ꣡न्द्र꣢꣯स्य । वृ꣡ष्णः꣢꣯ । व꣡रु꣢꣯णस्य । रा꣡ज्ञः꣢꣯ । आ꣣दित्या꣡ना꣢म् । आ꣣ । दित्या꣡ना꣢म् । म꣣रु꣡ता꣢म् । श꣡र्धः꣢꣯ । उ꣣ग्र꣢म् । म꣣हा꣡म꣢नसाम् । म꣣हा꣢ । म꣣नसाम् । भुवनच्यवा꣡ना꣢म् । भु꣣वन । च्यवा꣡ना꣢म् । घो꣡षः꣢꣯ । दे꣣वा꣡ना꣢म् । ज꣡य꣢꣯ताम् । उत् । अ꣣स्थात् ॥१८५७॥


स्वर रहित मन्त्र

इन्द्रस्य वृष्णो वरुणस्य राज्ञ आदित्यानां मरुताꣳ शर्ध उग्रम् । महामनसां भुवनच्यवानां घोषो देवानां जयतामुदस्थात् ॥१८५७॥


स्वर रहित पद पाठ

इन्द्रस्य । वृष्णः । वरुणस्य । राज्ञः । आदित्यानाम् । आ । दित्यानाम् । मरुताम् । शर्धः । उग्रम् । महामनसाम् । महा । मनसाम् । भुवनच्यवानाम् । भुवन । च्यवानाम् । घोषः । देवानाम् । जयताम् । उत् । अस्थात् ॥१८५७॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1857
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 21; खण्ड » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
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पदार्थ -

देवताओं का जयघोष उठे- - गत मन्त्र में प्राण - साधना तथा इन्द्रियों के वशीकरण के द्वारा देवसेनाओं की उत्पत्ति, उद्गति व प्रगति का उल्लेख हुआ था । वे असुरों पर विजय पाती हुई आगे बढ़ रही थीं । प्रस्तुत मन्त्र में विजय पानेवाली उन्हीं देवसेनाओं के जयघोष का वर्णन हैं—

१. (वृष्णः इन्द्रस्य) = शक्तिशाली व औरों पर सुखों की वर्षा करनेवाले, जितेन्द्रिय - इन्द्रियों के अधिष्ठाता इन्द्र का तथा २. (राज्ञः वरुणस्य) = [well regulated] अति नियमित जीवनवाले वरुण का, जिसने सब बुराइयों का वारण किया है तथा ३. (आदित्यानां मरुताम्) = अपने अन्दर निरन्तर उत्तमता का ग्रहण करनेवाले [आदानात् आदित्यः] प्राण-साधक मरुतों का [मरुतः प्राणा:] (शर्धः) = बल (उग्रम्) = बड़ा उदात्त व तीव्र होता है ।

इन्द्र का विशेषण वृषन् है— जो भी जितेन्द्रिय बनेगा वह अवश्य शक्तिशाली व औरों पर सुखों की वर्षा करनेवाला होगा ।

वरुण श्रेष्ठ का विशेषण 'राज्ञः ' है- - उत्तम प्रकार से नियमित जीवनवाला । वस्तुतः नियमित जीवन ही हमें उत्तम बनाता है।

मरुत् – प्राण-साधना करनेवाले आदित्य हैं - अपने अन्दर निरन्तर दिव्यता का आदान कर रहे हैं। आदित्य अदिति-पुत्र हैं—'अदीना देवमाता' के पुत्र हैं। देवमाता इन दिव्य गुणरूप आदित्यों को जन्म देती है ।

इन्द्र, वरुण व मरुतों का, जो देवताओं के तीन महारथी हैं, बल [शर्ध:] बड़ा उदात्त [उग्रम्] होता है, इन महारथियों का अनुगमन करनेवाले (महामनसाम्) = विशाल मनवाले (भुवनच्यवानाम्) = भुवनों का भी त्याग कर देनेवाले, अर्थात् लोकहित के लिए अधिक-से-अधिक त्याग करने के लिए उद्यत (देवानाम्) = देवताओं का (जयताम्) = जो सदा जय प्राप्त करनेवाले हैं, उनका (घोषः) = विजयघोष (उदस्थात्) = मेरे जीवन में सदा उठे, अर्थात् मेरे जीवन में सदा देवों का विजय हो और असुरों का पराजय ।
यहाँ प्रसङ्गवश देवों की दो विशेषताओं का उल्लेख हुआ है एक तो वे ‘विशाल मनवाले’ होते हैं और दूसरा वे 'अधिक-से-अधिक त्याग के लिए उद्यत' होते हैं । विशाल हृदयता व त्याग के बिना कोई देव नहीं बन पाता ।

भावार्थ -

मैं इन्द्र बनूँ, वरुण बनूँ, मरुत् होऊँ । हृदय को विशाल बनाऊँ, सदा त्याग के लिए उद्यत रहूँ ।

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