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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1874
ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - विश्वे देवाः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम -
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भ꣣द्रं꣡ कर्णे꣢꣯भिः शृणुयाम देवा भ꣣द्रं꣡ प꣢श्येमा꣣क्ष꣡भि꣢र्यजत्राः । स्थि꣣रै꣡रङ्गै꣢꣯स्तुष्टु꣣वा꣡ꣳस꣢स्त꣣नू꣢भि꣣꣬र्व्य꣢꣯शेमहि दे꣣व꣡हि꣢तं꣣ य꣡दायुः꣢꣯ ॥१८७४॥

स्वर सहित पद पाठ

भद्र꣢म् । क꣡र्णे꣢꣯भिः । शृ꣣णुयाम । देवाः । भद्र꣢म् । प꣣श्येम । अक्ष꣡भिः꣢ । अ꣢ । क्ष꣡भिः꣢꣯ । य꣣जत्राः । स्थिरैः꣢ । अ꣡ङ्गैः꣢꣯ । तुष्टु꣣वा꣡ꣳसः꣢ । तु꣣ । स्तुवा꣡ꣳसः꣢ । त꣣नू꣡भिः꣢ । वि । अ꣣शेमहि । देव꣡हि꣢तम् । दे꣣व꣢ । हि꣣तम् । य꣢त् । आ꣡युः꣢꣯ ॥१८७४॥


स्वर रहित मन्त्र

भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः । स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाꣳसस्तनूभिर्व्यशेमहि देवहितं यदायुः ॥१८७४॥


स्वर रहित पद पाठ

भद्रम् । कर्णेभिः । शृणुयाम । देवाः । भद्रम् । पश्येम । अक्षभिः । अ । क्षभिः । यजत्राः । स्थिरैः । अङ्गैः । तुष्टुवाꣳसः । तु । स्तुवाꣳसः । तनूभिः । वि । अशेमहि । देवहितम् । देव । हितम् । यत् । आयुः ॥१८७४॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1874
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 9; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 21; खण्ड » 1; सूक्त » 9; मन्त्र » 2
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पदार्थ -

(देवाः) = ज्ञान-ज्योति देनेवाले विद्वानो! आपकी उपदेशवाणियों से प्रेरित होकर हम (कर्णेभिः) कानों से (भद्रम्) = कल्याण व सुखकर शब्दों को ही (शृणुयाम) = सुनें । हम निन्दात्मक बातों को सुनने की रुचि से ऊपर उठ जाएँ। हे (यजत्राः) = [यज+त्रा] अपने सङ्ग व ज्ञानदान से हमारा त्राण करनेवाले विद्वानो ! (अक्षभिः) = प्रभु से दी गयी इन आँखों से (भद्रम्) = शुभ को ही (पश्येम) = देखें, हम कभी किसी की बुराई को न देखें। शहद की मक्खी की भाँति सब स्थानों से रस व सारभूत वस्तु को ही लेने का प्रयत्न करें। मल का ग्रहण करनेवाली मक्खी न बन जाएँ । हँस की भाँति दोषरूप जल को छोड़कर गुणरूप दूध का ही ग्रहण करें । सूअर की तरह मल ही हमारे स्वाद का विषय न बन जाए। एवं, शुभ ही सुनें और शुभ ही देखें । परिणामतः अपनी शक्तियों को जीर्ण न होने देते हुए (स्थिरैः अंगैः) = दृढ़ अंगों से तथा (तनूभिः) = विस्तृत शक्तियोंवाले शरीरों से (तुष्टुवांसः) = सदा प्रभु का स्तवन करते हुए उस आयु को (व्यशेमहि) = प्राप्त करें (यत् आयुः) = जो जीवन (देवहितम्) = देव के उपासन के योग्य है, अर्थात् जो अपने कर्त्तव्यों को करने के द्वारा प्रभु की अर्चना में बीतता है। इस प्रकार ही हम प्रशस्त इन्द्रियोंवाले ‘गोतम' बनेंगे, और बुराइयों को त्यागनेवालों में गिनती के योग्य बनकर राहूगण होंगे ।

भावार्थ -

देवों से प्रेरणा प्राप्त करके हम कानों से भद्र ही सुनें, आँखों से भद्र ही देखें तथा स्थिर अंगोंवाले शरीरों से प्रभु का स्तवन करते हुए देवोपासन योग्य जीवन बिताएँ ।

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