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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1873
ऋषिः - जय ऐन्द्रः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम -
1

मृ꣣गो꣢꣫ न भी꣣मः꣡ कु꣢च꣣रो꣡ गि꣢रि꣣ष्ठाः꣡ प꣢रा꣣व꣢त꣣ आ꣡ ज꣢गन्था꣣ प꣡र꣢स्याः । सृ꣣क꣢ꣳ स꣣ꣳशा꣡य꣢ प꣣वि꣡मि꣢न्द्र ति꣣ग्मं꣡ वि शत्रू꣢꣯न् ताढि꣣ वि मृधो꣢꣯ नुदस्व ॥१८७३॥

स्वर सहित पद पाठ

मृ꣣गः꣢ । न । भी꣣मः꣢ । कु꣣चरः꣢ । गि꣣रिष्ठाः꣢ । गि꣣रि । स्थाः꣢ । प꣣राव꣡तः꣢ । आ । ज꣣गन्थ । प꣡र꣢꣯स्याः । सृ꣣क꣢म् । स꣣ꣳशा꣡य꣢ । स꣣म् । शा꣡य꣢꣯ । प꣣वि꣢म् । इ꣣न्द्र । तिग्म꣢म् । वि । श꣣त्रू꣢꣯न् । ता꣢ढि । वि꣢ । मृ꣡धः꣢꣯ । नु꣣दस्व ॥१८७३॥


स्वर रहित मन्त्र

मृगो न भीमः कुचरो गिरिष्ठाः परावत आ जगन्था परस्याः । सृकꣳ सꣳशाय पविमिन्द्र तिग्मं वि शत्रून् ताढि वि मृधो नुदस्व ॥१८७३॥


स्वर रहित पद पाठ

मृगः । न । भीमः । कुचरः । गिरिष्ठाः । गिरि । स्थाः । परावतः । आ । जगन्थ । परस्याः । सृकम् । सꣳशाय । सम् । शाय । पविम् । इन्द्र । तिग्मम् । वि । शत्रून् । ताढि । वि । मृधः । नुदस्व ॥१८७३॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1873
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 9; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 21; खण्ड » 1; सूक्त » 9; मन्त्र » 1
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पदार्थ -

यह उपासना वेद का अन्त है, अर्थात् उपासनान्त है— उपासना की चरम सीमा है। सर्वोत्कृष्ट उपासना यही है कि मनुष्य प्रभु के कथनानुसार अपने जीवन को बनाये । प्रभु का उपदेश निम्न नौ शब्दों में दिया गया है । नौ ही तो अंक हैं, वेद में कितने ही स्थानों में जीव के लिए नौ वाक्यों में ही उपदेश दिये गये हैं ।

१. (मृगः) = [मृग अन्वेषणे] आत्मनिरीक्षण करनेवाला मृग है । आत्मनिरीक्षण ही उन्नति का प्रथम पग है। इसके विना अध्यात्म उन्नति सम्भव नहीं, इसीलिए शास्त्रकार लिखते हैं कि ('प्रत्यहं प्रत्यवेक्षेत नरश्चरितमात्मनः । किं नु मे पशुभिस्तुल्यं किन्नु सत्पुरुषैरिति ॥' उपनिषत्कारों ने इसी बात को ‘आत्मा वारे द्रष्टव्यः') = शब्दों में कहा है । सुकरात ने इसी बात को 'know thyself” इस रूप में कहा। सामान्यतः मनुष्य दूसरों को ही देखता है, अपने को नहीं । दूसरों में दोष दिखने से उनसे घृणा होती है, अपने न दिखने से अभिमान आ जाता है ।

२. (न भीमः) = किसी भी प्रकार भयङ्कर न बन । हमारा व्यवहार मृदु हो, न कि क्रूरतावाला। 

३. ('कुचरो गिरिष्ठाः') = में विरोधाभास अलंकार है 'भूमि पर चलनेवाला और पर्वत पर ठहरा हुआ', परन्तु 'कुचर: ' की भावना यह है कि हम हवाई क़िले न बनाएँ – शेखचिल्ली न बनें और वास्तविक स्थिति को समझकर वर्तें ।

४. (गिरिष्ठाः) = सदा वेदवाणी में स्थिति हों । वेदवाणी के अनुसार अपना जीवन बनाएँ। ('उद्यन् सूर्यइव सुप्तानां वर्च आददे') = यह वाक्य पढ़ें तो प्रातः काल उठने का भी संकल्प करें। ('प्रातर्यावाणो देवाः') = इस वाक्य को पढ़कर प्रातः भ्रमण को महत्त्व दें ।

५. (परस्याः परावतः आजगन्थ) = जो तेरा मन दूर से दूर भटकता रहता है वह तुझमें ही लौट आये, अर्थात् तू मन को एकाग्र कर । एकाग्रता में दिव्य शक्ति है । मन को पूर्ण एकाग्र कर लेने पर मनुष्य को वेदार्थ दिखने लगता है—वह ऋषि बन जाता है।

६. (सृकं संशाय) = तू अपनी गति को तीव्र कर । इतनी लम्बी जीवन-यात्रा ढिलमिल चाल से पूरी नहीं होगी।(‘न मा तमन्न श्रमन्नोत तन्द्रन्न वोचाम') = न तम में चला जाऊँ, न थकूँ, न तन्द्रालु बनूँ और न ही गपशप मारूँ । कल-कल की उपासना न करूँ और तीव्रगति से अपने मार्ग पर चलता जाऊँ।

७. हे (इन्द्र) = जीवात्मन्! (पविम्) = अपनी वाणी को (तिग्मम्) = तीक्ष्ण बना। तेरी वाणी तेजस्वी हो। ‘मौनान् मुनिः' कम बोलने से तू मुनि होगा । सत्य से तेरी वाणी में अद्भुत शक्ति आ जाएगी। लौकिक साधु पुरुषों की वाणी अर्थ के अनुसार होती हैं तो आद्य ऋषियों की वाणी के अनुसार अर्थ हो जाता है ।

८. (विशत्रून् ताढि) = तू ईर्ष्या-द्वेष आदि की उन भावनाओं को, जो हमारी शक्ति को तितरबितर [Shattered] कर देने से शत्रु हैं, विशेषरूप से नष्ट कर डाल।

९. (वि मृधः विनुदस्व) = मार डालनेवाली काम आदि की भावनाओं को तू विशेषरूप से दूर धकेल दे उन्हें सात समुद्र पार पहुँचा दे । यह काम 'मार' है— मृध murderer है । इसे तू अपनी ज्ञानाग्नि से भस्म करने का प्रयत्न कर ।

इन नौ बातों का पालन करने पर ही तू वस्तुत: ‘इन्द्र'=परमैश्वर्यवाला व इन्द्रियों का अधिष्ठाता बनेगा। तू जय=निरन्तर जयशील होने से सचमुच जय नामवाला होगा। इस प्रकार तू इस मन्त्र का ऋषि 'जय एन्द्र' होगा ।
 

भावार्थ -

हम उल्लिखित नौ बातों का पालन करके प्रभु के सच्चे उपासक बनें। 

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