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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1872
ऋषिः - पायुर्भारद्वाजः देवता - संग्रामशिषः छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम -
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यो꣢ नः꣣ स्वो꣡ऽर꣢णो꣣ य꣢श्च꣣ नि꣢ष्ट्यो꣣ जि꣡घा꣢ꣳसति । दे꣣वा꣡स्तꣳ सर्वे꣢꣯ धूर्वन्तु꣣ ब्र꣢ह्म꣣ व꣢र्म꣣ ममान्त꣢꣯र꣣ꣳ श꣢र्म꣣ व꣢र्म꣣ म꣡मा꣢न्त꣢꣯रम् ॥१८७२॥

स्वर सहित पद पाठ

यः꣢ । नः꣣ । स्वः꣢ । अ꣡रणः꣢꣯ । यः । च꣣ । नि꣡ष्ट्यः꣢꣯ । जि꣡घा꣢꣯ꣳसति । दे꣣वाः꣢ । तम् । स꣡र्वे꣢꣯ । धू꣣र्वन्तु । ब्र꣡ह्म꣢꣯ । व꣡र्म꣢꣯ । म꣡म꣢꣯ । अ꣡न्त꣢꣯रम् । श꣡र्म꣢꣯ । व꣡र्म꣢꣯ । म꣡म꣢꣯ । अ꣡न्त꣢꣯रम् ॥१८७२॥


स्वर रहित मन्त्र

यो नः स्वोऽरणो यश्च निष्ट्यो जिघाꣳसति । देवास्तꣳ सर्वे धूर्वन्तु ब्रह्म वर्म ममान्तरꣳ शर्म वर्म ममान्तरम् ॥१८७२॥


स्वर रहित पद पाठ

यः । नः । स्वः । अरणः । यः । च । निष्ट्यः । जिघाꣳसति । देवाः । तम् । सर्वे । धूर्वन्तु । ब्रह्म । वर्म । मम । अन्तरम् । शर्म । वर्म । मम । अन्तरम् ॥१८७२॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1872
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 8; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 21; खण्ड » 1; सूक्त » 8; मन्त्र » 3
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पदार्थ -

प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि ‘अप्रतिरथ इन्द्र' है- यह इन्द्रियों को वश में करनेवाला अनुपम योद्धा हृदय में चल रहे देवासुर संग्राम का ध्यान करते हुए कहता है (यः) = जो भी (स्वः) = अपना, (अरण:) = पराया [परभूत-शत्रुभूत] (च) = और (यः) = जो (निष्ठ्य:) = परदेशी, बाहर का [foreign, exotic] शत्रु बनकर (नः जिघांसति) = हमें मारने की कामना करता है, (तम्) = उसको (सर्वे देवा:) = सब दिव्य भाव (धूर्वन्तु) = नष्ट कर दें।‘काम, लोभ व मोह' ये हमारे ‘स्व' [अपनों] की भाँति वर्त्तते हुए हमारा विनाश करते हैं। 'क्रोध, मद व मत्सर' ये अरण [पराये] होते हुए हमें विनाश की ओर ले जाते हैं और कई बाह्य शत्रु भी किन्हीं स्वार्थों की पूर्ति के लिए समय-समय पर हमपर आक्रमण किया करते हैं । अप्रतिरथ प्रार्थना करता है कि 'मैं अपने हृदय में दिव्य वृत्तियों का विकास करता हुआ इन सब शत्रुओं को समाप्त कर सकूँ ।( ब्रह्म वर्म मम आन्तरम्) = ज्ञान मेरा आधार कवच हो । अपने सारे अतिरिक्त समय

को ज्ञान-प्राप्ति में लगाता हुआ मैं इन शत्रुओं से आक्रान्त न किया जा सकूँ । ('शर्म वर्म मम आन्तरम्') = सदा प्रसन्नता की मनोवृत्ति मेरा आन्तर कवच बने। सब घटनाचक्रों में मैं अपने मन:प्रसाद को नष्ट न होने दूँ। ये 'ब्रह्म और शर्म' मुझे सब शत्रुओं के आक्रमण से सुरक्षित करें। इस प्रकार इन शत्रुओं से आक्रमणीय न होता हुआ मैं सचमुच इस मन्त्र का ऋषि ‘अप्रतिरथ' बनूँ। यह अप्रतिरथ अपने जीवन में काम को प्रेम से, क्रोध को करुणा से, लोभ को त्याग से, मोह को चेतना से, मद को विनीतता से तथा मत्सर को मुदिता से पराजित करके सचमुच देवराट् इन्द्र बन जाता है।

भावार्थ -

हम अपने अतिरिक्त समय को ज्ञान प्राप्ति में लगाते हुए 'काम, लोभ व मोह' से अपने को बचाएँ तथा मानस सन्तुलन को स्थिर रखते हुए हम 'क्रोध, मद व मत्सर' से अनाक्रान्त होते हुए बाह्य शत्रुओं का शिकार न हों !

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