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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1873
    ऋषिः - जय ऐन्द्रः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम -
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    मृ꣣गो꣢꣫ न भी꣣मः꣡ कु꣢च꣣रो꣡ गि꣢रि꣣ष्ठाः꣡ प꣢रा꣣व꣢त꣣ आ꣡ ज꣢गन्था꣣ प꣡र꣢स्याः । सृ꣣क꣢ꣳ स꣣ꣳशा꣡य꣢ प꣣वि꣡मि꣢न्द्र ति꣣ग्मं꣡ वि शत्रू꣢꣯न् ताढि꣣ वि मृधो꣢꣯ नुदस्व ॥१८७३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मृ꣣गः꣢ । न । भी꣣मः꣢ । कु꣣चरः꣢ । गि꣣रिष्ठाः꣢ । गि꣣रि । स्थाः꣢ । प꣣राव꣡तः꣢ । आ । ज꣣गन्थ । प꣡र꣢꣯स्याः । सृ꣣क꣢म् । स꣣ꣳशा꣡य꣢ । स꣣म् । शा꣡य꣢꣯ । प꣣वि꣢म् । इ꣣न्द्र । तिग्म꣢म् । वि । श꣣त्रू꣢꣯न् । ता꣢ढि । वि꣢ । मृ꣡धः꣢꣯ । नु꣣दस्व ॥१८७३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मृगो न भीमः कुचरो गिरिष्ठाः परावत आ जगन्था परस्याः । सृकꣳ सꣳशाय पविमिन्द्र तिग्मं वि शत्रून् ताढि वि मृधो नुदस्व ॥१८७३॥


    स्वर रहित पद पाठ

    मृगः । न । भीमः । कुचरः । गिरिष्ठाः । गिरि । स्थाः । परावतः । आ । जगन्थ । परस्याः । सृकम् । सꣳशाय । सम् । शाय । पविम् । इन्द्र । तिग्मम् । वि । शत्रून् । ताढि । वि । मृधः । नुदस्व ॥१८७३॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1873
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 9; मन्त्र » 1
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 21; खण्ड » 1; सूक्त » 9; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    प्रथम मन्त्र में मानव को उद्बोधन दिया गया है।

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) वीर मानव ! तू (भीमः) भयङ्कर, (कुचरः) भूमि पर विचरनेवाले, (गिरिष्ठाः) पर्वत की गुफा में निवास करनेवाले (मृगः न) शेर के समान (भीमः) दुष्टों के लिए भयङ्कर, (कुचरः) भू-विहारी और (गिरिष्ठाः) पर्वत के सदृश उन्नत पद पर प्रतिष्ठित हो। (परावतः) सुदूर देश से (परस्याः) और दूर दिशा से (आ जगन्थ) शत्रुओं के साथ युद्ध करने के लिए आ। (सृकम्) गतिशील, (तिग्मम्) तीक्ष्ण (पविम्) वज्र को, शस्त्रास्त्रसमूह को (संशाय) और अधिक तीक्ष्ण करके (शत्रून्) शत्रुओं को (वि ताढि) विताड़ित कर, (मृधः) हिंसकों को (वि नुदस्व) दूर भगा दे ॥१॥ यहाँ श्लिष्टोपमालङ्कार है ॥१॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिए कि वीरता का सञ्चय करके जैसे बाहरी शत्रुओं को पराजित करें वैसे ही आन्तरिक शत्रुओं को भी निर्मूल करें ॥१॥

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    पदार्थ

    (इन्द्र) हे परमात्मन्! तू (गिरिष्ठाः-मृगः-न कुचरः) पर्वतीय सिंह के समान भयङ्कर दुष्प्रवृत्तियों के लिये है, कहाँ तू विचरता विभुगतिमान् है (परावतः परस्याः-आजगन्थ) दूर देश दूर दिशा होने पर भी प्राप्त होता है (सृकं तिग्मं पविं संशाय) मरणशील तीक्ष्ण वाग्वज्र१ ज्ञान प्रवृत्ति को प्रखर करके (शत्रून् विताढि) काम शत्रुओं को ताड़न कर—नष्ट कर (मृधः-विनुदस्व) हिंसक प्रवृत्तियों को विच्छिन्न कर॥१॥

    विशेष

    ऋषिः—ऐन्द्रो जयः (ऐश्वर्यवान् परमात्मा का उपासक इन्द्रियजयशील)॥ देवता—इन्द्रः॥ छन्दः—त्रिष्टुप्॥<br>

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    विषय

    ऐन्द्रावायवः

    पदार्थ

    यह उपासना वेद का अन्त है, अर्थात् उपासनान्त है— उपासना की चरम सीमा है। सर्वोत्कृष्ट उपासना यही है कि मनुष्य प्रभु के कथनानुसार अपने जीवन को बनाये । प्रभु का उपदेश निम्न नौ शब्दों में दिया गया है । नौ ही तो अंक हैं, वेद में कितने ही स्थानों में जीव के लिए नौ वाक्यों में ही उपदेश दिये गये हैं ।

    १. (मृगः) = [मृग अन्वेषणे] आत्मनिरीक्षण करनेवाला मृग है । आत्मनिरीक्षण ही उन्नति का प्रथम पग है। इसके विना अध्यात्म उन्नति सम्भव नहीं, इसीलिए शास्त्रकार लिखते हैं कि ('प्रत्यहं प्रत्यवेक्षेत नरश्चरितमात्मनः । किं नु मे पशुभिस्तुल्यं किन्नु सत्पुरुषैरिति ॥' उपनिषत्कारों ने इसी बात को ‘आत्मा वारे द्रष्टव्यः') = शब्दों में कहा है । सुकरात ने इसी बात को 'know thyself” इस रूप में कहा। सामान्यतः मनुष्य दूसरों को ही देखता है, अपने को नहीं । दूसरों में दोष दिखने से उनसे घृणा होती है, अपने न दिखने से अभिमान आ जाता है ।

    २. (न भीमः) = किसी भी प्रकार भयङ्कर न बन । हमारा व्यवहार मृदु हो, न कि क्रूरतावाला। 

    ३. ('कुचरो गिरिष्ठाः') = में विरोधाभास अलंकार है 'भूमि पर चलनेवाला और पर्वत पर ठहरा हुआ', परन्तु 'कुचर: ' की भावना यह है कि हम हवाई क़िले न बनाएँ – शेखचिल्ली न बनें और वास्तविक स्थिति को समझकर वर्तें ।

    ४. (गिरिष्ठाः) = सदा वेदवाणी में स्थिति हों । वेदवाणी के अनुसार अपना जीवन बनाएँ। ('उद्यन् सूर्यइव सुप्तानां वर्च आददे') = यह वाक्य पढ़ें तो प्रातः काल उठने का भी संकल्प करें। ('प्रातर्यावाणो देवाः') = इस वाक्य को पढ़कर प्रातः भ्रमण को महत्त्व दें ।

    ५. (परस्याः परावतः आजगन्थ) = जो तेरा मन दूर से दूर भटकता रहता है वह तुझमें ही लौट आये, अर्थात् तू मन को एकाग्र कर । एकाग्रता में दिव्य शक्ति है । मन को पूर्ण एकाग्र कर लेने पर मनुष्य को वेदार्थ दिखने लगता है—वह ऋषि बन जाता है।

    ६. (सृकं संशाय) = तू अपनी गति को तीव्र कर । इतनी लम्बी जीवन-यात्रा ढिलमिल चाल से पूरी नहीं होगी।(‘न मा तमन्न श्रमन्नोत तन्द्रन्न वोचाम') = न तम में चला जाऊँ, न थकूँ, न तन्द्रालु बनूँ और न ही गपशप मारूँ । कल-कल की उपासना न करूँ और तीव्रगति से अपने मार्ग पर चलता जाऊँ।

    ७. हे (इन्द्र) = जीवात्मन्! (पविम्) = अपनी वाणी को (तिग्मम्) = तीक्ष्ण बना। तेरी वाणी तेजस्वी हो। ‘मौनान् मुनिः' कम बोलने से तू मुनि होगा । सत्य से तेरी वाणी में अद्भुत शक्ति आ जाएगी। लौकिक साधु पुरुषों की वाणी अर्थ के अनुसार होती हैं तो आद्य ऋषियों की वाणी के अनुसार अर्थ हो जाता है ।

    ८. (विशत्रून् ताढि) = तू ईर्ष्या-द्वेष आदि की उन भावनाओं को, जो हमारी शक्ति को तितरबितर [Shattered] कर देने से शत्रु हैं, विशेषरूप से नष्ट कर डाल।

    ९. (वि मृधः विनुदस्व) = मार डालनेवाली काम आदि की भावनाओं को तू विशेषरूप से दूर धकेल दे उन्हें सात समुद्र पार पहुँचा दे । यह काम 'मार' है— मृध murderer है । इसे तू अपनी ज्ञानाग्नि से भस्म करने का प्रयत्न कर ।

    इन नौ बातों का पालन करने पर ही तू वस्तुत: ‘इन्द्र'=परमैश्वर्यवाला व इन्द्रियों का अधिष्ठाता बनेगा। तू जय=निरन्तर जयशील होने से सचमुच जय नामवाला होगा। इस प्रकार तू इस मन्त्र का ऋषि 'जय एन्द्र' होगा ।
     

    भावार्थ

    हम उल्लिखित नौ बातों का पालन करके प्रभु के सच्चे उपासक बनें। 

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    विषय

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    भावार्थ

    हे (इन्द्र) परमेश्वर ! आप (गिरिष्ठाः कुचरः मृगः न भीमः) पर्वतों में रहने वाले, कुत्सित रूप से विचरण करने वाले, जंगली हिंसक हाथी या सिंह के समान भयकारी एवं आप (मृगः) योगियों से भीतरी गुफा में खोजने योग्य, या आत्म-परिशोधन करने योग्य हैं, आप (कुचरः) कहां नहीं व्यापक हो ? अर्थात् सर्वव्यापक हो। आप (गिरिष्ठाः) विद्वानों, वाणियों एवं वेदमन्त्रों में शब्द और उसके अर्थ रूप में विद्यमान हो और साथ ही सबके ऊपर शासक होने से सब के भयप्रद हो। (आ परस्याः परावतः) दूर से दूर देश, अलभ्य मुक्तिधाम से हमारे हृदयों तक या ‘परा’ ब्रह्मविद्या के भी (परावतः) निगूढ़ परम रहस्यमय भाग से आप (आजगन्थ) आते हो, या प्रकट होते हो। हे (इन्द्र) परमात्मन् (सृकं) प्रसरणशील (तिग्मं) तेजोमय, तीक्ष्ण (पविम्) परमपावन ज्ञानवज्र को (संशाय) अति तीक्ष्ण करके (शत्रून्) अन्तः-शत्रुओं को राजा के समान (वि ताढि) विनाश करो और (मृधः) हमारा सर्वस्व अपहरण करने हारे डाकुओं के समान तामस भावों को (वि नुदस्व) परे करो, दूर हटाओ।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१—४ अप्रतिरथ एन्द्रः। ५ अप्रतिरथ ऐन्द्रः प्रथमयोः पायुर्भारद्वाजः चरमस्य। ६ अप्रतिरथः पायुर्भारद्वाजः प्रजापतिश्च। ७ शामो भारद्वाजः प्रथमयोः। ८ पायुर्भारद्वाजः प्रथमस्य, तृतीयस्य च। ९ जय ऐन्द्रः प्रथमस्य, गोतमो राहूगण उत्तरयोः॥ देवता—१, ३, ४ आद्योरिन्द्रः चरमस्यमस्तः। इन्द्रः। बृहस्पतिः प्रथमस्य, इन्द्र उत्तरयोः ५ अप्वा प्रथमस्य इन्द्रो मरुतो वा द्वितीयस्य इषवः चरमस्य। ६, ८ लिंगोक्ता संग्रामाशिषः। ७ इन्द्रः प्रथमयोः। ९ इन्द्र: प्रथमस्य, विश्वेदेवा उत्तरयोः॥ छन्दः—१-४,९ त्रिष्टुप्, ५, ८ त्रिष्टुप प्रथमस्य अनुष्टुवुत्तरयोः। ६, ७ पङ्क्तिः चरमस्य, अनुष्टुप् द्वयोः॥ स्वरः–१–४,९ धैवतः। ५, ८ धैवतः प्रथमस्य गान्धारः उत्तरयोः। ६, ७ पञ्चमः चरमस्य, गान्धारो द्वयोः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    तत्रादौ मानवमुद्बोधयति।  

    पदार्थः

    हे (इन्द्र) वीर मानव ! त्वम् (भीमः) भयङ्करः, (कुचरः) भूचरः, (गिरिष्ठाः) पर्वतगुहानिवासी (मृगः न) सिंह इव (भीमः) दुष्टानां भयङ्करः, (कुचरः) भूविहर्ता, (गिरिष्ठाः) पर्वतवदुन्नते पदे स्थितिं लब्धा, भवेति शेषः। (परावतः) परागतवतो देशात् (परस्याः) परवर्तिन्या अपि दिशः (आ जगन्थ) शत्रुभिर्योद्धुम् आयाहि। (सृकम्) सरणशीलम्, (तिग्मम्) तीक्ष्णम् (पविम्) वज्रम्, शस्त्रास्त्रसमूहमिति यावत् (संशाय) भूयोऽपि तीक्ष्णीकृत्य (शत्रून्) रिपून् (वि ताढि२) विताडय, (मृधः) हिंसकान् (विनुदस्व) दूरं विद्रावय। [परावतः, ‘उपसर्गाच्छन्दसि धात्वर्थे’ अ० ५।१।११८ इति वतिः प्रत्ययः। संशाय, संपूर्वः शो तनूकरणे दिवादिः, क्त्वो ल्यप्] ॥१॥३ यास्काचार्येण निरुक्ते नैघण्टुकदेवताप्रकरणे मन्त्रस्य प्रथमश्चरण एवं व्याख्यातः—[“मृगो न भीमः कुचरो गिरिष्ठाः। मृग इव भीमः कुचरो गिरिष्ठाः। मृगो मार्ष्टेर्गतिकर्मणः, भीमो बिभ्यत्यस्माद्, भीष्मोऽप्येतस्मादेव। कुचर इति चरतिकर्म कुत्सितम्, अथ चेद् देवताभिधानं क्वायं न चरतीति। गिरिष्ठा गिरिस्थायी। गिरिः पर्वतः समुद्गीर्णो भवति” इति (निरु० १।२०)] ॥ अत्र श्लिष्टोपमालङ्कारः ॥१॥

    भावार्थः

    मनुष्यैः स्वात्मनि वीरतां सञ्चित्य यथा बाह्याः शत्रवः पराजेयास्तथैवाभ्यन्तरा अपि निर्मूलनीयाः ॥१॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Commander of the army, like a dreadful void tiger roaming in the mountains with a crooked pace, encircle the distant foes. Crush thou the enemies, whetting the streaming forth sharp bolt, thou subduer of the wicked through punishment, win betties!

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    Meaning

    Terrible like a mountain lion roaming around, pray come from the farthest of far off places and, having sharpened the laser fiery thunderbolt, destroy the enemies and throw out the violent adversaries. (Rg. 10-180-2)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (इन्द्र) હે પરમાત્મન્ ! તું (गिरिष्ठाः मृगः न कुचरः) પર્વતીય સિંહની સમાન ભયકારી દુષ્પ્રવૃત્તિઓને માટે છે, ક્યાં તું વિચરતાં વિભુ-વ્યાપક ગતિમાન છે, (परावतः परस्याः आजगन्थ) દૂર દેશ દૂર દિશામાં હોવા છતાં પ્રાપ્ત થાય છે. (सृकं तिग्मं पविं संशाय) મરણશીલ તીક્ષ્ણ વાક્ વજ્ર જ્ઞાન પ્રવૃત્તિને તેજ કરીને (शत्रून् विताढि) કામ શત્રુઓને તાડન કર-નષ્ટ કર. (मृधः विनुदस्व) હિંસક પ્રવૃત્તિઓને વિચ્છિન્ન કર. (૧)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांनी वीरतेचा संचय करून जसे बाहेरच्या शत्रूंना पराजित करता येते, तसेच आंतरिक शत्रूंचेही निर्मूलन करावे. ॥१॥

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