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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 200
ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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इ꣡न्द्रो꣢ अ꣣ङ्ग꣢ म꣣ह꣢द्भ꣣य꣢म꣣भी꣡ षदप꣢꣯ चुच्यवत् । स꣢꣫ हि स्थि꣣रो꣡ विच꣢꣯र्षणिः ॥२००॥

स्वर सहित पद पाठ

इ꣡न्द्रः꣢꣯ । अ꣣ङ्ग꣢ । म꣣ह꣢त् । भ꣣य꣢म् । अ꣣भि꣢ । सत् । अ꣡प꣢꣯ । चु꣣च्यवत् । सः꣢ । हि । स्थि꣣रः꣢ । वि꣡च꣢꣯र्षणिः । वि । च꣣र्षणिः ॥२००॥


स्वर रहित मन्त्र

इन्द्रो अङ्ग महद्भयमभी षदप चुच्यवत् । स हि स्थिरो विचर्षणिः ॥२००॥


स्वर रहित पद पाठ

इन्द्रः । अङ्ग । महत् । भयम् । अभि । सत् । अप । चुच्यवत् । सः । हि । स्थिरः । विचर्षणिः । वि । चर्षणिः ॥२००॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 200
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 9;
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पदार्थ -

इस मन्त्र का ऋषि ‘गृत्समद शौनक' है। 'गृणाति इति गृत्सः, माद्यतीति मदः, शुनति इति शुनः, स एव शुनकः' इन व्युत्पत्तियों से प्रभु की स्तुति करनेवाला 'गृत्स' है, यह सदा प्रसन्न रहता है, अत: ‘मद' है, क्रियाशील होने से 'शुनक' है। इससे प्रभु कहते हैं कि (अङ्ग) = हे प्रिय! (इन्द्रः)=जितेन्द्रिय ही (महद्भयम्) = इस महान् भयरूप संसार का (अभीषत्) = अभिभव करता है। अभिभव ही नहीं, (अपचुच्यवत्) = संसार को अपने से पृथक् करता है। जीते जी जीवन्मुक्त हो जाने से वह संसार से दबता नहीं, अपितु संसार को दबा लेता है - पराभूत कर देता है। यह संसार उसे आसक्त नहीं कर पाता। देह छोड़ने के उपरान्त वह परामुक्ति को प्राप्त करके एक अनन्त-से काल के लिए आवागमन के चक्र से छूट जाता है। यही वस्तुतः मानव जीवन का उद्देश्य है। इस उद्देश्य को पाने के लिए इन्द्र = इन्द्रियों का अधिष्ठाता-जितेन्द्रिय होना आवश्यक है। यह जितेन्द्रिय ही प्रभु को प्रिय होता है। प्रभु ने मन्त्र में इसे 'अङ्ग' इस प्रकार सम्बोधित किया है। 'अङ्ग' इस सम्बोधन में क्रियाशीलता की भावना है [ अगि गतौ ] । अकर्मण्य व्यक्ति उस प्रभु को प्रिय हो ही कैसे सकता है जिसका स्वभाव ही क्रिया है ('स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च')। यह क्रियाशीलता उसे जितेन्द्रिय बनने में भी सहायक होती है।

(सः) = वह मोक्ष को पानेवाला इन्द्र (हि) = निश्चय से (स्थिर:) = स्थिर होता है - डावाँडोल न होकर स्थितप्रज्ञ होता है। इसकी बुद्धि वासनाओं से आन्दोलित न होकर ‘अविकम्प' बनी रहती है। यह (विचर्षणिः) = विशेष दृष्टिकोण को अपनानेवाला होता है। उसे प्रत्येक वस्तु में सौन्दर्य के निर्माता का आभास मिलता है। विचर्षणि के अतिरिक्त यह कर्षणि विशेष काम करनेवाला होता है। यह कर्म के महत्त्व को समझता है कि इस कर्म ने ही उसे जितेन्द्रिय बना देवों का प्रिय बनाया है। एवं, स्थिरता, विशेष दृष्टिकोण व कर्म- ये वे साधन हैं जो इन्द्र को इन्द्र बनाते और इन्द्र बनकर वह मोक्ष व ब्रह्मनिर्वाणरूप लक्ष्य का लाभ करता है।

भावार्थ -

मोक्ष ही मेरा जीवन-लक्ष्य हो, उसके लिए मैं स्थिरमति, विशेष गम्भीर दृष्टिवाला व सदा श्रमशील बनूँ।

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