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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 216
ऋषिः - त्रिशोकः काण्वः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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आ꣢ बु꣣न्दं꣡ वृ꣢त्र꣣हा꣡ द꣢दे जा꣣तः꣡ पृ꣢च्छा꣣द्वि꣢ मा꣣त꣡र꣢म् । क꣢ उ꣣ग्राः꣡ के ह꣢꣯ शृण्विरे ॥२१६॥

स्वर सहित पद पाठ

आ꣢ । बु꣣न्द꣢म् । वृ꣣त्रहा꣢ । वृ꣣त्र । हा꣢ । द꣣दे । जातः꣢ । पृ꣣च्छात् । वि꣢ । मा꣣त꣡र꣢म् । के । उ꣣ग्राः꣢ । के । ह꣣ । शृण्विरे ॥२१६॥


स्वर रहित मन्त्र

आ बुन्दं वृत्रहा ददे जातः पृच्छाद्वि मातरम् । क उग्राः के ह शृण्विरे ॥२१६॥


स्वर रहित पद पाठ

आ । बुन्दम् । वृत्रहा । वृत्र । हा । ददे । जातः । पृच्छात् । वि । मातरम् । के । उग्राः । के । ह । शृण्विरे ॥२१६॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 216
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 11;
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पदार्थ -

गत मन्त्र में ‘इषा’ शब्द ‘ज्ञान' का संकेत कर चुका है। 'शतवाजया' शब्द ‘शक्ति' का। इस मन्त्र में ‘वृत्रहा' शब्द ज्ञान को आवृत करनेवाले राग-द्वेषादि वृत्रों के विनाश की सूचना दे रहा है। इस प्रकार ज्ञान से मस्तिष्क को, नैर्मल्य से मन को तथा शक्ति से शरीर को चमकानेवाला यह ‘त्रिशोक' तीन दीप्तियोंवाला ‘काण्व' मेधावी पुरुष (जात:) = आचार्यकुल से दूसरा जन्म लेने पर [तं जातं द्रष्टुं अभि संयन्ति देवाः] अर्थात् आचार्य की भट्टी में परिपक्व होकर संसार में आने पर स्वयं (वृत्रहा) = सब वासनाओं का विनाश करनेवाला बनकर (बुन्दम्) = तीर को आददे=हाथ में ग्रहण करता है । यह (मातरम् विपृच्छात्) = माता के हिंसक को पूछता है। पता करता है कि कौन हिंसक है। (के उग्रा:) = कौन उग्र हैं- तेज स्वभाव के हैं (के ह आशृणिवरे)=कौन निश्चय से चारों ओर अपनी उग्रता के कारण ख्यात [notorious] हैं। उन्हें जानकर यह उन्हें समाप्त करने के प्रयत्न में लग जाता है।

मनुष्य का उद्देश्य मज़े से खाते-पीते जीवन बिताना नहीं है। उसे अन्याय के विरुद्ध संग्राम करते हुए अन्याय को दूर करने में ही जीवन यापन करना चाहिए। 

भावार्थ -

हमारा जीवन अन्याय के विरुद्ध एक 'दीर्घ संग्राम' हो ।

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