Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 221
ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः
देवता - मरुतः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
4
उ꣢दु꣣ त्ये꣢ सू꣣न꣢वो꣣ गि꣢रः꣣ का꣡ष्ठा꣢ य꣣ज्ञे꣡ष्व꣢त्नत । वा꣣श्रा꣡ अ꣢भि꣣ज्ञु꣡ यात꣢꣯वे ॥२२१॥
स्वर सहित पद पाठउ꣢त् । उ꣣ । त्ये꣢ । सू꣣न꣡वः꣢ । गि꣡रः꣢꣯ । का꣡ष्ठाः꣢꣯ । य꣣ज्ञे꣡षु꣢ । अ꣣त्नत । वाश्राः꣢ । अ꣣भिज्ञु꣢ । अ꣣भि । ज्ञु꣢ । या꣡त꣢꣯वे ॥२२१॥
स्वर रहित मन्त्र
उदु त्ये सूनवो गिरः काष्ठा यज्ञेष्वत्नत । वाश्रा अभिज्ञु यातवे ॥२२१॥
स्वर रहित पद पाठ
उत् । उ । त्ये । सूनवः । गिरः । काष्ठाः । यज्ञेषु । अत्नत । वाश्राः । अभिज्ञु । अभि । ज्ञु । यातवे ॥२२१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 221
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 11;
Acknowledgment
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 11;
Acknowledgment
विषय - प्रभु की ओर
पदार्थ -
(त्ये)=वे- गत मन्त्र की भावना के अनुसार प्राणापान की साधना करनेवाले (उत् उ)=प्राकृतिक भोगों से ऊपर उठकर (यातवे) = प्रभु की ओर जाने के लिए यत्नशील होते हैं। आत्मा चतुष्पात् है। तीन पग चल चुकने पर, चौथे पग में हम प्रभु को पा लेते हैं। संसार के भोगों में उलझ जानेपर मनुष्य इन पगों को नहीं उठा पाता।
बुद्धिमत्ता इसी में है कि हम भोगों में न फँसकर आगे और आगे बढ़ने का ध्यान करें। ऐसा करनेवाला ही समझदार है- 'प्रस्कण्व' मेधावी है। यह प्रस्कण्व ही इस मन्त्र का ऋषि है। कण-कण करके मेधा का संचय करने के कारण यह काण्व है। इससे उठाये जानेवाले तीन पग इस प्रकार हैं
१. यह प्रस्कण्व (गिर:) = वेदवाणियों के (सूनवः) = उत्पन्न करनेवाले होते हैं। प्रस्कण्व अपने को ज्ञान से परिपूर्ण कर लेता है तो उससे ज्ञानमय वाणियों का प्रवाह फूटने लगता है। यही ज्ञानकाण्ड का स्वीकार है ।
२. (काष्ठा यज्ञेषु अत्नत) = ये प्रस्कण्व सदा यज्ञों में समिधाओं का विस्तार करते हैं। इनका जीवन यज्ञमय होता है । ('यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म') = यज्ञ ही सर्वोत्तम कर्म है। इनका मस्तिष्क ज्ञानकाण्ड का स्वीकार करता है तो इनके हाथ कर्मकाण्ड का । उत्तम कर्मों में व्याप्त रहकर ये अपने जीवन को विषयों का शिकार होने से बचा लेते हैं।
३. इसके बाद ये प्रस्कण्व (अभिज्ञु)=अभिगतजानु होकर - नमस् के आसन पर बैठकर (वाश्रा:)=अपनी प्रार्थनाओं को उस प्रभु के प्रति उच्चारित करते हैं [वाश् = शब्द - voice]। इनका हृदय भक्ति-भावना से ओत-प्रोत होता है और ये अपने स्तुति वचनों से प्रभु-महिमा के गीत गाते हैं। यह प्रभु-सम्पर्क उन्हें शक्तिशाली बनाता है और ये संसार के उथल-पुथल में कभी क्षुब्ध नहीं होते। यही उपासना काण्ड के स्वीकार का परिणाम है।
एवं, प्रस्कण्व उस प्रभु की प्राप्ति के लिए आगे और आगे बढ़ता हुआ 'ज्ञानकाण्ड, कर्मकाण्ड व उपासनाकाण्ड' रूप तीन पगों को रखता है। चौथे पग में तो प्रभु को पा ही लेता है।
भावार्थ -
हमारा जीवन ज्ञानमय, कर्ममय व भक्तिमय हो।
इस भाष्य को एडिट करें