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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 225
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चाङ्गिरसः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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उ꣣क्थं꣢ च꣣ न꣢ श꣣स्य꣡मा꣢नं꣣ ना꣡गो꣢ र꣣यि꣡रा चि꣢꣯केत । न꣡ गा꣢य꣣त्रं꣢ गी꣣य꣡मा꣢नम् ॥२२५॥
स्वर सहित पद पाठउ꣣क्थ꣢म् । च꣣ । न꣢ । श꣣स्य꣡मा꣢नम् । न । अ꣡गोः꣢꣯ । अ । गोः꣣ । रयिः꣢ । आ । चि꣣केत । न꣢ । गा꣣यत्रम् । गी꣣य꣡मा꣢नम् ॥२२५॥
स्वर रहित मन्त्र
उक्थं च न शस्यमानं नागो रयिरा चिकेत । न गायत्रं गीयमानम् ॥२२५॥
स्वर रहित पद पाठ
उक्थम् । च । न । शस्यमानम् । न । अगोः । अ । गोः । रयिः । आ । चिकेत । न । गायत्रम् । गीयमानम् ॥२२५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 225
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 12;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 12;
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विषय - अगोरयि न बनें
पदार्थ -
के गुण-धर्मों का वर्णन करना है। प्रकृति के पदार्थों का वर्णन करती हुई ये ऋचाएँ जब उन प्राकृतिक पदार्थों में प्रभु के माहात्म्य का दर्शन करने लगती हैं तब ये 'उक्थ' कहलाती हैं। प्रस्तुत मन्त्र में शंस का स्पष्ट उल्लेख नहीं है, परन्तु 'शस्यमानं' क्रिया के द्वारा उसका संकेत हो रहा है। यजु-मन्त्र जीवों के कर्त्तव्यों का मुख्यरूप से वर्णन करते हैं, परन्तु उन कर्त्तव्यों के अन्दर भी जब हम जीवों की परस्पर सम्बद्धता [Interlinking ] देखते हैं तो प्रभु का अद्भुत रचना-कौशल हमें प्रभु की ओर प्रेरित करता है और ये यजुर्मन्त्र 'शंस' = प्रभु की महिमा का शंसन करनेवाले हो जाते हैं।
साम के मन्त्र उपासनापरक हैं। जब जीव भक्ति के उत्कर्ष में उनका गायन करने लगता है तो वे 'गायत्र' कहलाते हैं। गायन करनेवाले का ये त्राण करते हैं।
इन (उक्थम्) = उक्थों को और (शस्यमानम्) = शंसों को (चन)= भी (अगोरयिः) = जो ज्ञान-धन से रहित है वह (न अचिकेत) = नहीं समझता है। उक्थों व शंसों के द्वारा स्तवन ज्ञानी ही कर पाता है। अज्ञानी ने पदार्थों की रचना में कर्ता की कुशलता को क्या देखना? और जीवों की परस्पर सम्बद्धता के सौन्दर्य को भी क्या समझना?
यह अगोरयि (गीयमानम्) = गाये जाते हुए (गायत्रम्) = गायत्र को भी (न अचिकेत) = नहीं समझता है। ज्ञानी पुरुष ही प्रभु की सर्वज्ञता, सर्वशक्तिमत्ता, दयालुता आदि गुणों के प्रकर्ष से प्रभावित हो प्रभु की महिमा का गायन करता है।
हम भी ‘गोरयि' = ज्ञान के धनवाले बनकर प्रभु के उक्थों, शंसों व गायत्रों का उच्चारण करें, जिससे वे हमारे वर्धन का कारण बनें ।
यह ज्ञानी सदा ज्ञान के मार्ग पर चलता हुआ कण-कण का संचय करके ही तो ऐसा बना है, अतः [मेधाम् अतति] 'मेधातिथि काण्व' है। ज्ञान व बुद्धि का प्यारा होने से यह ‘प्रियमेध' है। व्यसनों में न फँसने के कारण ‘आङ्गिरस' है।
भावार्थ -
हम ज्ञानधनी बनकर प्रभु के ज्ञानी भक्त बनें।
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