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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 236
ऋषिः - नोधा गौतमः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
7
तं꣡ वो꣢ द꣣स्म꣡मृ꣢꣫ती꣣ष꣢हं꣣ व꣡सो꣢र्मन्दा꣣न꣡मन्ध꣢꣯सः । अ꣣भि꣢ व꣣त्सं꣡ न स्वस꣢꣯रेषु धे꣣न꣢व꣣ इ꣡न्द्रं꣢ गी꣣र्भि꣡र्न꣢वामहे ॥२३६॥
स्वर सहित पद पाठत꣢म् । वः꣣ । दस्म꣢म् । ऋ꣣तीष꣡ह꣢म् । ऋ꣣ति । स꣡ह꣢꣯म् । व꣡सोः꣢꣯ । म꣣न्दान꣢म् । अ꣡न्ध꣢꣯सः । अ꣣भि꣢ । व꣣त्स꣢म् । न । स्व꣡स꣢꣯रेषु । धे꣣न꣡वः꣣ । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । गी꣣र्भिः꣢ । न꣣वामहे ॥२३६॥
स्वर रहित मन्त्र
तं वो दस्ममृतीषहं वसोर्मन्दानमन्धसः । अभि वत्सं न स्वसरेषु धेनव इन्द्रं गीर्भिर्नवामहे ॥२३६॥
स्वर रहित पद पाठ
तम् । वः । दस्मम् । ऋतीषहम् । ऋति । सहम् । वसोः । मन्दानम् । अन्धसः । अभि । वत्सम् । न । स्वसरेषु । धेनवः । इन्द्रम् । गीर्भिः । नवामहे ॥२३६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 236
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 1;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 1;
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विषय - गौएँ जिस प्रकार बछड़ों का
पदार्थ -
इस मन्त्र का ऋषि ‘नोधा गोतम'=प्रशस्त इन्द्रियोंवाला है और नवधा नवीन प्रकार से अपना धारण करनेवाला है। सामान्यप्रकार तो अपने मुख में आहुति देते हुए विचरनेवाले असुरों का है, विशेष प्रकार वह है जिसमें 'दूसरों को खिलाने द्वारा अपने को खिलाना'। यही वह नवीन धारण का प्रकार है जिसके कारण इस मन्त्र का ऋषि ‘नवधा' कहलाया है। नवधा की इन्द्रियाँ विषयाक्रान्त न होने से प्रशस्त बनी रहती हैं, अतः यह गोतम है। यह गोतम कहता है कि हममें धारण की यह नवीन वृत्ति बनी रहे- हम किसी को पराया समझें ही नहीं–अतः (तं इन्द्रम्) = उस परमैश्वर्यशाली, प्रभु को (गीर्भिः) = वेदवाणियों से (नवामहे) = स्तुत करते हैं जो (वः दस्मम्) = तुम्हारे [दसु उपक्षये] शत्रुओं का संहार करनेवाले हैं, (ऋतीषहम्) = 'काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर' नामक आक्रान्ताओं का पराभव करनेवाले हैं और साथ ही (वसोः अन्धसः मन्दानम्) = निवास के लिए पर्याप्त अन्न से तृप्त करनेवाले हैं [मन्दतेस्तृप्तिकर्मणः]। प्रभुस्मरण से अन्त:करण की पवित्रता प्राप्त होती है। पवित्र अन्तःकरणवाला व्यक्ति छल-बल से धनादि का संग्रह नहीं करता, परन्तु वह भूखा भी नहीं मरता । प्रभु उसे निवास के लिए पर्याप्त सात्त्विक अन्न प्राप्त कराते हैं, अतः यह भक्त उत्तम बुद्धिवाला बनकर और भी उत्तम मार्ग का आक्रमण करता है और सदा उस प्रभु का स्मरण करता है। (न)= जैसेकि (धेनवः) = नवसूतिका गौवें (स्वसरेषु)-गृहों पर स्थित (वत्सम् अभि) = बछड़े की ओर ध्यान रखती हैं, इसी प्रकार यह गोतम भी सांसारिक कार्यों को करता हुआ सदा प्रभु का स्मरण करता है। यह स्मरण ही उसे पथभ्रष्ट नहीं होने देता, अपितु उसे उद्दिष्ट स्थान पर पहुँचानेवाला होता है। उस ('सा काष्ठा सा परागति:') =प्रभुरूप उद्दिष्ट स्थान पर पहुँचकर वह अनुभव करता है कि प्रभु ही ‘दस्मम्'= दर्शनीय [Beautiful ] हैं। संसार में जहाँ जहाँ सौन्दर्य है, वहाँ प्रभु के ही तेज का अंश उस सौन्दर्य का मूल है। वह प्रभु 'दस्मम्'=अद्भुत हैं [wonderful ], उनकी महिमा का पूरा-पूरा चिन्तन सम्भव नहीं।
भावार्थ -
उस अचिन्त्यमहिम प्रभु के स्मरण के द्वारा हम वासना-जगत् से ऊपर उठें।
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