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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 241
ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः देवता - मरुतः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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न꣡ हि व꣢꣯श्चर꣣मं꣢ च꣣ न꣡ वसि꣢꣯ष्ठः प꣣रिम꣡ꣳस꣢ते । अ꣣स्मा꣡क꣢म꣣द्य꣢ म꣣रु꣡तः꣢ सु꣣ते꣢꣫ सचा꣣ वि꣡श्वे꣢ पिबन्तु का꣣मि꣡नः꣢ ॥२४१॥

स्वर सहित पद पाठ

न꣢ । हि । वः꣣ । चरम꣢म् । च꣣ । न꣢ । व꣡सि꣢꣯ष्ठः । प꣣रिमँ꣡स꣢ते । प꣣रि । मँ꣡स꣢꣯ते । अ꣣स्मा꣡क꣢म् । अ꣣द्य꣢ । अ꣣ । द्य꣢ । म꣣रु꣡तः꣢ । सु꣣ते꣢ । स꣡चा꣢꣯ । वि꣡श्वे꣢꣯ । पि꣣बन्तु । कामि꣡नः꣢ ॥२४१॥


स्वर रहित मन्त्र

न हि वश्चरमं च न वसिष्ठः परिमꣳसते । अस्माकमद्य मरुतः सुते सचा विश्वे पिबन्तु कामिनः ॥२४१॥


स्वर रहित पद पाठ

न । हि । वः । चरमम् । च । न । वसिष्ठः । परिमँसते । परि । मँसते । अस्माकम् । अद्य । अ । द्य । मरुतः । सुते । सचा । विश्वे । पिबन्तु । कामिनः ॥२४१॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 241
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 1;
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पदार्थ -

शरीर में प्राण मुख्यरूप से 'प्राण, अपान, व्यान, समान, उदान' इन पाँच भेदों में तथा ‘नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त व धनञ्जय' इन पाँच गौण भेदोंसहित कितने ही उपभेदों में
विभक्त होकर कार्य कर रहा है। ये प्राण के ४९ भेद ही 'मरुतः' कहलाते हैं। इन्हें वशीभूत करके चित्तवृत्तियों के दमन द्वारा जो व्यक्ति इन्द्रियों को शान्त करता है, वह ‘वसिष्ठ' कहलाता है। प्राणापानों की साधना के कारण ही यह ‘मैत्रावरुणि' है। [मित्रावरुणौ=प्राणापानौ]। 

प्राणापान का संयम वशी बनने का सर्वोत्तम प्रकार है। वसिष्ठ किसी गौण प्राणभेद की भी उपेक्षा नहीं करता। यह वशी कहता है कि (मरुतः) = हे मरुतो! (वसिष्ठः)=मैं वसिष्ठ (वः)=आपके (चरमं च न)= अन्तिम प्राणभेद को भी (परि)= छोड़कर (न हि मंसते)= नही आराधना करता हूँ। मैं मुख्य, गौण व गौणतर भेदों में विभक्त सभी प्राणों की स्तुति करता हूँ। इन प्राणों के वश में करने का ही यह परिणाम है कि (अद्य)=आज विश्वे (कामिनः) = नाना प्रकार के भोगों की कामना करनेवाले ये (अस्माकम्) = हमारे सब प्राण (सचा)= मिलकर (सुते)= [सुतं का द्विवचन] सोम व ज्ञान का (पिबन्तु) = पान करें। 'सुतम्' शब्द सोम-अपजंसपजल का भी वाचक है तथा ज्ञान का भी। जब तक मनुष्य प्राणों की साधना नहीं करता तब तक उसकी प्राणशक्ति उसके भोगों के भोगने में व्यय होती है और ज्यूँहि उसने इन प्राणों की साधना कर ली त्यूँहि ये कामी न रहकर सोम व ज्ञान का पान करनेवाला इन्द्र बन जाता है। कितना महान् परिवर्तन उसके जीवन में आ जाता है।

भावार्थ -

मैं कामी न रहकर सोमपान करनेवाला बनूँ।

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