Loading...

सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 247
ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - इन्द्रः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
4

त्व꣢म꣣ङ्ग꣡ प्र श꣢꣯ꣳसिषो दे꣣वः꣡ श꣢विष्ठ꣣ म꣡र्त्य꣢म् । न꣢꣫ त्वद꣣न्यो꣡ म꣢घवन्नस्ति मर्डि꣣ते꣢न्द्र꣣ ब्र꣡वी꣢मि ते꣣ व꣡चः꣢ ॥२४७॥

स्वर सहित पद पाठ

त्व꣢म् । अ꣣ङ्ग꣢ । प्र । शँ꣣सिषः । देवः꣢ । श꣣विष्ठ । म꣡र्त्य꣢꣯म् । न । त्वत् । अ꣣न्यः꣢ । अ꣣न् । यः꣢ । म꣣घवन् । अस्ति । मर्डिता꣢ । इ꣡न्द्र꣢꣯ । ब्र꣡वी꣢꣯मि । ते꣣ । व꣡चः꣢꣯ ॥२४७॥


स्वर रहित मन्त्र

त्वमङ्ग प्र शꣳसिषो देवः शविष्ठ मर्त्यम् । न त्वदन्यो मघवन्नस्ति मर्डितेन्द्र ब्रवीमि ते वचः ॥२४७॥


स्वर रहित पद पाठ

त्वम् । अङ्ग । प्र । शँसिषः । देवः । शविष्ठ । मर्त्यम् । न । त्वत् । अन्यः । अन् । यः । मघवन् । अस्ति । मर्डिता । इन्द्र । ब्रवीमि । ते । वचः ॥२४७॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 247
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 2;
Acknowledgment

पदार्थ -

इस मन्त्र का ऋषि ‘गोतम'= प्रशस्त इन्द्रियोंवाला ‘राहूगण:'-त्यागियों में गिनती करने योग्य है। इससे प्रभु कहते हैं कि हे (अङ्ग) = क्रियाशील अतएव प्रिय! (त्वम्)=तू (मर्त्यम्)=मरणधर्मा पुरुष की प्(रशंसिष:)= प्रशंसा ही करना, निन्दा नहीं। 'अङ्ग' इस सम्बोधन में यह संकेत स्पष्ट है कि जो सदा क्रिया में लगे होते हैं उनकी वृत्ति दूसरों के दोष देखने की नहीं। ऐसे ही व्यक्ति प्रभु के प्रिय होते हैं। अकर्मण्य व आलसी पुरुष ही सदा दूसरों के दोष देखा करते हैं और परिणामस्वरूप कभी प्रभु के प्रेम के पात्र नहीं हो पाते।

कमी को न देखकर प्रशंसात्मक बात को देखनेवाला बनकर ही मनुष्य (देव:) = देव बनता है। तू दोष-दर्शन को छोड़कर अच्छाइयों को देखनेवाला बन । हे (शविष्ठ) = तू अत्यन्त शक्तिशाली है। कमजोर लोग ही दोष देखा करते हैं। दोष देखना – १. मनुष्य को प्रभु - प्रेम से वंचित करता है, २. यह उसे देव न बनाकर दानव बना देता है और ३. इससे उसकी शक्ति क्षीण होती है, अतः हमें चाहिए कि हम प्रशंसात्मक शब्दों का ही सदा उच्चारण करते हुए १. प्रभु के प्यारे बनें २. देव बनें और ३. शक्तिशाली बनें।

यह व्यक्ति प्रभु से कहता है कि हे (मघवन्)=पापशून्य ऐश्वर्यवाले प्रभो! (त्वदन्यः)=आपसे भिन्न (मर्डिता)=मेरे जीवन को सुखी बनानेवाला (न अस्ति) = नहीं है। संसार का अनुभव प्रत्येक मनुष्य को अन्त में इसी परिणाम पर पहुँचाता है कि प्रभु के अतिरिक्त कोई अन्त तक साथ देनेवाला नहीं है, अतः गोतम निश्चय करता है कि (इन्द्र) = हे परमैश्वर्यवाले प्रभो! (ते वचः ब्रवीमि) = मैं आपके ही स्तुतिवचनों का उच्चारण करता हूँ।
एवं, अनासक्ति के योग पर चलनेवाला व्यक्ति सामाजिक जीवन में किसी की निन्दा नहीं करता और आध्यात्मिक जीवन में केवल प्रभु का आश्रय लेता है उसी को परागति मानता है।

भावार्थ -

मैं परनिन्दा से परे [दूर] रहूँ, प्रभु को ही परमाश्रय समझँ ।

इस भाष्य को एडिट करें
Top