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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 247
ऋषिः - गोतमो राहूगणः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
53
त्व꣢म꣣ङ्ग꣡ प्र श꣢꣯ꣳसिषो दे꣣वः꣡ श꣢विष्ठ꣣ म꣡र्त्य꣢म् । न꣢꣫ त्वद꣣न्यो꣡ म꣢घवन्नस्ति मर्डि꣣ते꣢न्द्र꣣ ब्र꣡वी꣢मि ते꣣ व꣡चः꣢ ॥२४७॥
स्वर सहित पद पाठत्व꣢म् । अ꣣ङ्ग꣢ । प्र । शँ꣣सिषः । देवः꣢ । श꣣विष्ठ । म꣡र्त्य꣢꣯म् । न । त्वत् । अ꣣न्यः꣢ । अ꣣न् । यः꣢ । म꣣घवन् । अस्ति । मर्डिता꣢ । इ꣡न्द्र꣢꣯ । ब्र꣡वी꣢꣯मि । ते꣣ । व꣡चः꣢꣯ ॥२४७॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वमङ्ग प्र शꣳसिषो देवः शविष्ठ मर्त्यम् । न त्वदन्यो मघवन्नस्ति मर्डितेन्द्र ब्रवीमि ते वचः ॥२४७॥
स्वर रहित पद पाठ
त्वम् । अङ्ग । प्र । शँसिषः । देवः । शविष्ठ । मर्त्यम् । न । त्वत् । अन्यः । अन् । यः । मघवन् । अस्ति । मर्डिता । इन्द्र । ब्रवीमि । ते । वचः ॥२४७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 247
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 2;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 2;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में परमात्मा और राजा से प्रार्थना की गयी है।
पदार्थ
(अङ्ग) हे (शविष्ठ) सबसे अधिक बली परमात्मन् वा राजन् ! (देवः) दिव्यगुणयुक्त (त्वम्) आप (मर्त्यम्) मनुष्य को (प्रशंसिषः) प्रशंसा का पात्र कीजिए। हे (मघवन्) ऐश्वर्यशालिन् ! (त्वत् अन्यः) आपसे भिन्न अन्य कोई भी (मर्डिता) सुखदाता (न अस्ति) नहीं है। हे (इन्द्र) विघ्नविदारक सिद्धिदायक परमेश्वर वा राजन् ! मैं (ते) आपके लिए (वचः) स्तुति-वचन (ब्रवीमि) बोल रहा हूँ ॥५॥ इस मन्त्र में अर्थश्लेषालङ्कार है ॥५॥
भावार्थ
हे बलियों में बलिष्ठ, समस्त दिव्य गुणों के पारावार, सकलसम्पत्तिशाली, न्याय-विद्या-विवेक-दया आदि ऐश्वर्यों के निधि परमात्मन् वा राजन् ! कभी अधर्माचरण में संलग्न होकर हम जगत् में निन्दा के पात्र हो जाते हैं। आप कृपा करके हमें धर्म में नियुक्त करके और शुभ कर्मों में समुत्साहित करके प्रशंसा का पात्र बना दीजिए ॥५॥
पदार्थ
(अङ्ग शविष्ठ-इन्द्र त्वम्) अच्छा तो फिर “अङ्ग पुनरर्थे” [अव्ययार्थनिबन्धनम्] निर्विघ्न तेरी उपासना में मैं लगा रहूँ अति बलवान् परमात्मन्! तू (मर्त्यं प्रशंसिषः) मुझ मरणधर्मी जन्म मरण में आने वाले अमृत होने के इच्छुक उपासक को प्रशंसित कर—प्रोत्साहन दे—आन्तरिक बल दे ‘लिङर्थे लेट् प्रयोगः’ (मघवन्) हे प्रशस्त धन वाले—प्रशस्त धन देने वाले! (त्वत्-अन्यः-मर्डिता देवः) तुझसे भिन्न सुखदाता देव (न-अस्ति) नहीं है (ते वचः-ब्रवीमि) तेरे लिये मैं स्तुति वचन बोलता हूँ निवेदन करता हूँ।
भावार्थ
अच्छा! तो मेरे प्रिय बलवन् परमात्मन्! मैं निर्विघ्न तेरी उपासना में लगा रहूँ अतः तू मुझ इस जन्ममरणधर्मी उपासक को जो मैं अमृत होने की आकांक्षा करता हूँ मुझे प्रोत्साहन दे मुझ में आन्तरिक बल दे, हे प्रशस्त धन देने वाले तेरे से भिन्न कोई सुखदाता देव नहीं है मैं तेरी स्तुति करता हूँ—तुझसे निवेदन करता हूँ॥५॥
विशेष
ऋषिः—गोतमः (परमात्मज्ञान में अत्यधिक प्रगतिशील उपासक)॥<br>
विषय
अनासक्ति [Detachment ] के दो तत्त्व
पदार्थ
इस मन्त्र का ऋषि ‘गोतम'= प्रशस्त इन्द्रियोंवाला ‘राहूगण:'-त्यागियों में गिनती करने योग्य है। इससे प्रभु कहते हैं कि हे (अङ्ग) = क्रियाशील अतएव प्रिय! (त्वम्)=तू (मर्त्यम्)=मरणधर्मा पुरुष की प्(रशंसिष:)= प्रशंसा ही करना, निन्दा नहीं। 'अङ्ग' इस सम्बोधन में यह संकेत स्पष्ट है कि जो सदा क्रिया में लगे होते हैं उनकी वृत्ति दूसरों के दोष देखने की नहीं। ऐसे ही व्यक्ति प्रभु के प्रिय होते हैं। अकर्मण्य व आलसी पुरुष ही सदा दूसरों के दोष देखा करते हैं और परिणामस्वरूप कभी प्रभु के प्रेम के पात्र नहीं हो पाते।
कमी को न देखकर प्रशंसात्मक बात को देखनेवाला बनकर ही मनुष्य (देव:) = देव बनता है। तू दोष-दर्शन को छोड़कर अच्छाइयों को देखनेवाला बन । हे (शविष्ठ) = तू अत्यन्त शक्तिशाली है। कमजोर लोग ही दोष देखा करते हैं। दोष देखना – १. मनुष्य को प्रभु - प्रेम से वंचित करता है, २. यह उसे देव न बनाकर दानव बना देता है और ३. इससे उसकी शक्ति क्षीण होती है, अतः हमें चाहिए कि हम प्रशंसात्मक शब्दों का ही सदा उच्चारण करते हुए १. प्रभु के प्यारे बनें २. देव बनें और ३. शक्तिशाली बनें।
यह व्यक्ति प्रभु से कहता है कि हे (मघवन्)=पापशून्य ऐश्वर्यवाले प्रभो! (त्वदन्यः)=आपसे भिन्न (मर्डिता)=मेरे जीवन को सुखी बनानेवाला (न अस्ति) = नहीं है। संसार का अनुभव प्रत्येक मनुष्य को अन्त में इसी परिणाम पर पहुँचाता है कि प्रभु के अतिरिक्त कोई अन्त तक साथ देनेवाला नहीं है, अतः गोतम निश्चय करता है कि (इन्द्र) = हे परमैश्वर्यवाले प्रभो! (ते वचः ब्रवीमि) = मैं आपके ही स्तुतिवचनों का उच्चारण करता हूँ।
एवं, अनासक्ति के योग पर चलनेवाला व्यक्ति सामाजिक जीवन में किसी की निन्दा नहीं करता और आध्यात्मिक जीवन में केवल प्रभु का आश्रय लेता है उसी को परागति मानता है।
भावार्थ
मैं परनिन्दा से परे [दूर] रहूँ, प्रभु को ही परमाश्रय समझँ ।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = ( अङ्ग ) = हे ( इन्द्र ) = आत्मन् ! ( त्वं ) = तु ( देवः ) = स्वयं सब का प्रकाशक होकर भी हे ( शविष्ठ ) = सब गतिमान् और शक्तिमान् पदार्थों और ज्ञानवानों में श्रेष्ठ ! ( मर्त्यम् ) = मरणधर्मा देह को ( प्र शंसिष: ) = प्रशंसा योग्य उत्तम चेतन बनाता है। हे ( मघवन् ) = ऐश्वर्यवन् ! ( त्वदन्यः ) = तेरे से दूसरा कोई ( मर्ड़िता ) = सुख का देने हारा ( न अस्ति ) = नहीं है ।
इसलिये ( ते ) = तेरी ही ( वचः ) = स्तुतिपरक वाणी को मैं ( ब्रवीमि ) = कहता हूं ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - गोतम:।
देवता - इन्द्रः।
छन्दः - बृहती।
स्वरः - मध्यमः।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमात्मा राजा च प्रार्थ्यते।
पदार्थः
(अङ्ग) हे (शविष्ठ) बलवत्तम परमात्मन् राजन् वा ! शवस् इति बलनाम। निघं० २।९। ततो भूम्न्यर्थे मतुप्। तत इष्ठन्। ‘विन्मतोर्लुक्। अ० ५।३।६५’ इति मतुपो लुक्। (देवः) दिव्यगुणयुक्तः (त्वम् मर्त्यम्) मनुष्यम् (प्रशंसिषः२) प्रशंसाभाजनं कुरु, प्रशंसां कुर्वन्नुत्साहय वा। प्र पूर्वात् शंसु स्तुतौ धातोर्लेटि ‘सिब्बहुलं लेटि’। अ० ३।१।३४ इति सिबागमः। हे (मघवन्) ऐश्वर्यशालिन् ! (त्वत् अन्यः) त्वद्भिन्नः कोऽपि (मर्डिता) मम सुखयिता (न अस्ति) नो विद्यते। हे इन्द्र विघ्नविदारक सिद्धिदायक परमेश्वर राजन् वा ! अहम् (ते) तुभ्यम् (वचः) स्तुतिवचनं (ब्रवीमि) वच्मि ॥५॥३ अत्र अर्थश्लेषालङ्कारः ॥५॥
भावार्थः
हे बलिनां बलिष्ठ सकलदिव्यगुणपारावार सकलसम्पत्तिशालिन् न्यायविद्याविवेकदयाद्यैश्वर्यनिधे परमात्मन् राजन् वा ! कदाचिदधर्माचरणे संलग्ना वयं जगति निन्दिता भवामः। त्वं कृपयाऽस्मान् धर्मे नियुज्य शुभकर्मसु समुत्साह्य च प्रशंसाभाजः कुरु ॥५॥
टिप्पणीः
१. ऋ० १।८४।१९, य० ६।३७, साम० १७२३। २. प्रशंसिषः प्रशस्तं करोषि—इति वि०। प्रशंसिषः इति अन्तर्णीतण्यर्थः। प्रशंसय प्रशस्तं कुरु—इति भ०। सम्यगनेन स्तुतमिति प्रशंस—इति सा०। ३. दयानन्दर्षिणा मन्त्रोऽयम् ऋग्भाष्ये ईश्वरसभाध्यक्षयोर्विषये, यजुर्भाष्ये च ‘प्रजाजनाः कृतं सभापतिं कथं प्रशंसेयुरिति’ विषये व्याख्यातः।
इंग्लिश (2)
Meaning
O God, the Mightiest, the illuminator of all. Thou Verily infusest life in the mortal body. O All-Powerful, there is no comforter but Thee. I speak my words to Thee!
Meaning
Amga, dear friend, Indra, dear and saviour, giver of joy, omnipotent lord, self-refulgent and omniscient, reveal the truth for mortal humanity. Lord of universal wealth, none other than you is the giver of peace and bliss. I speak the very word of yours in covenant. (Rg. 1-84-19)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (अङ्ग शविष्ठ इन्द्र त्वम्) ઠીક, ત્યારે નિર્વિઘ્ન તારી ઉપાસનામાં સ્થિર રહું અતિ બળવાન પરમાત્મન્ ! તું (मर्त्यं प्रशंसिषः) હું મરણધર્મી જન્મ-મરણના ચક્કરમાં આવનાર અમૃત બનાવને ઇચ્છુક ઉપાસકને પ્રશંસિત કર, પ્રોત્સાહિત કર, આન્તરિક બળ પ્રદાન કર.
(मघवन्) હે પ્રશસ્ત ધનવાળા-પ્રશસ્ત ધનના દાતા ! (त्वत् अन्यः मर्डिता देवः) તારાથી સુખદાતા દેવ અન્ય કોઈ (न अस्ति) નથી. તે (वचः ब्रवीमि) તારા માટે હું સ્તુતિ વચન બોલું છું-નિવેદન કરું છું. (પ)
भावार्थ
ભાવાર્થ : ઠીક ! તો મારા પ્રિય બળવાન પરમાત્મન્ ! હું નિર્વિઘ્ન તારી ઉપાસનામાં સ્થિર રહું, તેથી તું હું જે એવા જન્મમરણધર્મી ઉપાસકને, જે હું અમૃત બનવાની આકાંક્ષા રાખું છું. મને પ્રોત્સાહન આપ, મને આન્તરિક બળ આપ, હે પ્રશસ્ત ધન આપનાર તારા સિવાય બીજો કોઈ સુખ આપનાર દૈવ નથી, હું તારી સ્તુતિ કરું છું-તને નિવેદન કરું છું. (૫)
उर्दू (1)
Mazmoon
آپ کے سوائے اور کوئی سُکھ آنند داتا نہیں!
Lafzi Maana
(انگ) ہے اِندر آتمن (شوشٹھ) مہا بلوان اور مہا گیانی پرمیشور! (تُومّ دیو) آپ اپنے آپ روشن بالذّات ہیں۔ آپ طاقت اور روشنی عطا کر کے اپنے (مرتیمّ) عابد انسان کو پیار کرتے ہوئے اُسے (پرسنشیہ) قابلِ تعریف مستحق بنائیے، ہے (بگھون) زر و مال کے مالکِ اعلےٰ پربُھو (توّت انیہ مڑدتِہ) آپ کے بغیر کوئی دوسرا سُکھ آنند دینے والا (نہ استی) نہیں ہے۔ اِس لئے ہے اِندر میں (تے وچہ برویمی) آپ کے لئے اُتم بانی بولتا ہوں۔
Tashree
گیان اور شکتی کے ساگر روشنی مینار ہو، اور سُکھ شانتی کا داتا تم سا کوئی ہے نہیں۔
मराठी (2)
भावार्थ
हे बलवानामध्ये बलवान, संपूर्ण दिव्य गुणांनी असीमा, संपूर्ण संपत्तियुक्त, न्याय-विद्या-विवेक-दया इत्यादी ऐश्वर्याचा निधी परमात्मा किंवा राजा असून जेव्हा अधर्माचरणात संलग्न होऊन आम्ही जगात निंदेचे पात्र बनतो तेव्हा तुम्ही आम्हाला धर्मात नियुक्त करून शुभ कर्मात प्रोत्साहित करून प्रशंसाचे पात्र बनवा. ॥५॥
विषय
परमेश्वराला आणि इंद्राला प्रार्थना -
शब्दार्थ
(अड्ग) (शविष्ठ) सर्वांहून अधिक बली हे परमेश्वर वा हे राजा, (देवः) दिव्य गुणयुक्त (त्वम्) आपण (मर्त्यम्) मनुष्याला (मज उपासकाला) (प्रशंसिषः) प्रशंसापात्र करा (माझ्यावर अनुग्रह कर) हे (मधवन्) ऐश्वर्यशाली परमेश्वर वा राजा, (त्वत् अन्यः) तुमच्या व्यतिरिक्त कोणीही (मडिता) सुखदाता (न अस्ति) नाही. हे (इन्द्र) विघ्नविदारक, सिद्धिदायक परमेश्वर, हे राजा, मी (वे) तुमच्यासाठी हे (वचः) वचन, (ब्रवीमि) बोलत आहे (सुखासाठी व कृपेसाठी याचना करीत आहे.)।।५।।
भावार्थ
हे सर्व बलवंतामध्ये बलिष्ठ हे दिव्यगुणागार, हे सकल ऐश्वर्यशाली, न्याय, विद्या, विवेक, दया आदी ऐश्वर्याचे निधी हे परमेश्वरा वा हे राजा, कधी कधी आम्ही उपासक / प्रजाजन अधर्माचरणात लीन होऊन जगात निंदनीय ठरतो. आपण कृपा करून आम्हाला धर्म मार्गाचे अनुसरण करणे व शुभ कर्मे करण्यासाठी प्रोत्साहित करा की ज्यायोगे आम्ही जगी प्रशंसनीय ठरू.।।५।।
विशेष
या मंत्रात श्लेष अलंकार आहे.।।५।।
तमिल (1)
Word Meaning
பலமுள்ளவனே! ஒளியுடனான நீ மனிதர்களை ஆசிர்வதிக்கிறாய். ஐசுவரியவனான இந்திரனே! உன்னைத் தவிர சுகமளிப்பவன் வேறு ஒருவருமில்லை. (ஆதலால்) என்மொழி
களை உச்சரிக்கிறேன்.
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