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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 246
    ऋषिः - विश्वामित्रो गाथिनः देवता - इन्द्रः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
    33

    आ꣢ म꣣न्द्रै꣡रि꣢न्द्र꣣ ह꣡रि꣢भिर्या꣣हि꣢ म꣣यू꣡र꣢रोमभिः । मा꣢ त्वा꣣ के꣢ चि꣣न्नि꣡ ये꣢मु꣣रि꣢꣫न्न पा꣣शि꣢꣫नोऽति꣣ ध꣡न्वे꣢व꣣ ता꣡ꣳ इ꣢हि ॥२४६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ꣢ । म꣣न्द्रैः꣢ । इ꣣न्द्र । ह꣡रि꣢꣯भिः । या꣣हि꣢ । म꣣यू꣡र꣢रोमभिः । म꣣यू꣡र꣢ । रो꣣मभिः । मा꣢ । त्वा꣣ । के꣢ । चित् । नि꣢ । ये꣣मुः । इ꣢त् । न । पा꣣शि꣡नः꣢ । अ꣡ति꣢꣯ । ध꣡न्व꣢꣯ । इ꣣व । ता꣢न् । इ꣣हि ॥२४६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ मन्द्रैरिन्द्र हरिभिर्याहि मयूररोमभिः । मा त्वा के चिन्नि येमुरिन्न पाशिनोऽति धन्वेव ताꣳ इहि ॥२४६॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आ । मन्द्रैः । इन्द्र । हरिभिः । याहि । मयूररोमभिः । मयूर । रोमभिः । मा । त्वा । के । चित् । नि । येमुः । इत् । न । पाशिनः । अति । धन्व । इव । तान् । इहि ॥२४६॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 246
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 4
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 2;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में यह वर्णन है कि इन्द्र निर्बाध हमारे समीप आ जाए।

    पदार्थ

    प्रथम—अध्यात्म के पक्ष में। हे (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् परमात्मन् ! आप (मन्द्रैः) आनन्ददायक (मयूररोमभिः) मोरपंखों के समान मृदु (हरिभिः) प्राणों के द्वारा (आयाहि) आइये, अर्थात् हमारे हृदय में प्रकट होइये। (त्वा) प्रकट होते हुए आपको (केचित्) कोई भी योगमार्ग में बाधक व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमाद, आलस्य, अविरति, भ्रान्तिदर्शन, अलब्धभूमिकत्व, अनवस्थितत्व रूप विघ्न (मा नियेमुः) न रोक सकें, (न) जैसे (पाशिनः) जाल हाथ में लिये व्याध (इत्) गतिमान् अर्थात् भूमि पर चलते हुए अथवा आकाश में उड़ते हुए पशु-पक्षी आदि को जाल द्वारा रोक लेते हैं। (तान्) उन प्रतिबन्धकों को (धन्व इव) अन्तरिक्ष के समान (अति इहि) पार करके प्रकट हो जाइए, अर्थात् जैसे विमानों से अन्तरिक्ष को पार करके कोई आता है, वैसे ही उन बाधकों को पार करके आप हमारे हृदय में प्रकट होइए। अथवा (धन्व इव) धनुष धारी के समान आप उन बाधक शत्रुओं को पराजित करके प्रकट हो जाइए ॥ द्वितीय—राजा के पक्ष में। हे (इन्द्र) शत्रुविदारक वीर राजन् ! आप (मन्द्रैः) स्तुतियोग्य अथवा गम्भीर स्वरवाले, (मयूररोमभिः) मोरों के रोमों के समान मृदु केसरोंवाले (हरिभिः) रथ में जोते हुए उत्कृष्ट जाति के घोड़ों द्वारा (आयाहि) संकट-काल में प्रजा की रक्षा के लिए आइए ! (न) जैसे (इत्) भूमि पर चलते या आकाश में उड़ते हुए पशु-पक्षी आदि को (पाशिनः) पाशधारी व्याध बाँध लेते हैं, वैसे (त्वा) आपको (केचित्) कोई भी शत्रुजन (मा नियेमुः) बाँध न सकें, (धन्व इव) धनुष के समान आप (तान्) उन शत्रुओं को (अति इहि) अतिक्रान्त अर्थात् पराजित कर दीजिए ॥४॥ इस मन्त्र में श्लेषा तथा उपमालङ्कार है। रेफ, मकार और नकार की अनेक बार आवृत्ति में वृत्त्यनुप्रास है। न्द्रै, न्द्र न्नि, न्न में छेकानुप्रास है ॥४॥

    भावार्थ

    प्राणों का स्वरूप मोर के रोमों के समान मृदु होता है, इसीलिए प्राणविद्या मधुविद्या के नाम से प्रसिद्ध है। प्राणायाम द्वारा हम परमात्मा को अपने हृदय के अन्दर प्रकट कर सकते हैं। प्रकट किया गया वह हमारी योगसाधना में आनेवाले विघ्नों को दूर कर देता है। इसीप्रकार प्रजाजनों से पुकार गया राजा सब शत्रुओं को पराजित करके राष्ट को उन्नत करता है ॥४॥

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    पदार्थ

    (इन्द्र) हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन्! तू (मयूररोमभिः-मन्द्रैः-हरिभिः) मोरपक्षी के रोमसदृश कमनीय अपनी रश्मियों—ज्ञान ज्योतियों के द्वारा जो तेरे स्वरूप को प्रदर्शित करती हुई तुझे हमारे तक लाने वाली और हमें तेरे तक पहुँचाने वाली हैं उनके द्वारा (आयाहि) समन्तरूप से हमें प्राप्त हों (केचित्) कोई अन्य (त्वा मा नियेमुः-इत्) तुझे न निरुद्ध करें—रोकें (पाशिनः-न) पाशवाले व्याध जनों की भाँति (धन्व-इव तान्-अतीहि) अथवा वे बाधक आ भी खड़े हों तो उन्हें मरुदेशों की भाँति अतिक्रमण करके प्राप्त हो।

    भावार्थ

    हे परमात्मन्! तू मोरपक्षी की चमक दमक सुन्दर रोम समान कमनीय ज्ञान रश्मियाँ—ज्ञान ज्योतियाँ जो कि तेरे स्वरूप को प्रदर्शित करती हुई हमारे तक तुझे लाने वाली और हमें तेरे तक पहुँचाने—आकर्शित करने वाली हैं उनके द्वारा समन्तरूप से प्राप्त हो। परमात्मन्! इस तेरे आगमन को रोकने वाला कोई भी दोष हमारे अन्दर उत्पन्न न हो जो हमारी सद्वृत्तियों को व्याध के समान रोककर तुझे हमारे तक पहुँचने में बाधक हो जावे, तथा हमारे से अन्यों द्वारा प्रसिद्ध किए अन्यथा दोषों को तू मरुप्रेदश के समान शुष्कनीरस समझकर लाङ्घकर प्राप्त हो॥४॥

    विशेष

    ऋषिः—विश्वामित्रः (सबसे स्नेह करने वाला सबका मित्र)॥<br>

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    विषय

    मृगतृष्णा में न फँसें

    पदार्थ

    चित्तवृत्तियों का ही उल्लेख करते हुए प्रभु जीव से कहते हैं कि हे (इन्द्र) = इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीव! तू (मन्द्रैः) = सदा प्रसन्नता से परिपूर्ण प्रसादगुणयुक्त (मयूररोमभिः) = [मिनन्ति हिंसन्ति दुर्विचारान्, रोमाणि= शब्दाः रु शब्दे] दुर्विचारनाशक प्रभुवाचक ओम् आदि शब्दोंवाली (हरिभिः)=चित्तवृत्तियों से (आयाहि) = मुझे प्राप्त हो । प्रसन्न चित्तवाले की बुद्धि पर्यवस्थित होती है और स्थितप्रज्ञ ही प्रभु को पाने में समर्थ होता है। मनुष्य प्रसन्न रहे और योग के शब्दों में (तस्यवाचकः प्रणवः, तयपस्तदर्थभावनम्) = प्रभु के वाचक प्रणव- ओम् का जप करे। सब क्रियाओं को प्रसन्नता से करते हुए प्रभु को न भूले । बस यही प्रभु-प्राप्ति का मार्ग है।

    विषय इसीलिए विषय हैं कि ये विशेषरूप से [षिञ् बन्धने] बाँध लेते हैं। यहाँ इन्हें (पाशिन:) = पाशवाले, पाशों से जकड़ लेनेवाला कहा गया है। ये जाल में बाँधकर तेरा घात [जल=घातने] करनेवाले (केचित्)=कोई भी विषय (त्वा मत् इत् नियेमु)=तुझे मत रोक ले। प्रभु की ओर जाते हुए मनुष्य को मध्य में रोक लेनेवाले ये विषय हैं। ये इतने चमकीले हैं कि हमारी आँखें इनसे आकृष्ट हो ही जाती हैं और ये हमारे मन को लुब्ध कर लेते हैं। प्रभु जीव से कहते हैं कि तू (धन्वा इव) = मरुभूमि की भाँति (तान् अति इहि) = उन्हें पार कर जा, लाँघ कर आगे निकल जा । वस्तुतः ये विषय मरुभूमि की भाँति हैं। जब रेत के कणों पर सूर्य की किरणें पड़ती हैं तो वे कण चमकते हैं तथा जल प्रतीत होते हैं। एक मूढ़ हरिण प्यास बुझाने के लिए उधर दौड़ता है, परन्तु वहाँ पानी थोड़े ही होता है? कुछ दूरी पर आगे फिर दीखता
    है, वह आगे दौड़ता है, पर वहाँ भी क्या उसकी प्यास बुझ पाती है? फिर आगे दौड़ता है और इसी प्रकार थककर समाप्त हो जाता है। यही मनुष्यरूपी मृग की विषयों में गति होती है। उनसे उसकी प्यास बुझती नहीं। उसकी भूख आगे और आगे बढ़ती है। सौ, हज़ार, दस हज़ार, लाख, करोड़, अरब का क्रम चलता है और इस चक्कर में ही चकराकर उसका अन्त हो जाता है। वह वास्तविक शान्ति नहीं पाता। विषयों के प्रेम से ऊपर उठकर हम शान्ति व प्रभु को पा सकते हैं।

    विषय-प्रेम से ऊपर उठने की साधना यही है कि हम अपने प्रेम को व्यापक बनाकर ‘विश्वामित्र' बन जाएँ। 'विश्वामित्र' विषयमित्र नहीं रहता। यही प्रभु का सच्चा स्तोता ‘गाथिनः' कहलाता है। यही इस मन्त्रस का ऋषि है।
     

    भावार्थ

    हम इस तत्त्व को समझें कि विषय मरुस्थल हैं-वहाँ हमारी प्यास नहीं बुझ सकती।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = हे ( इन्द्र ) = आत्मन् ! ( मन्द्रै: ) = अत्यन्त प्रशंसा योग्य, उत्तम हर्ष के देने वाले, ( मयूररोमभि: ) = मोर के लोमों  के समान लोमों तथा आनील विद्युत् कान्ति से सम्पन्न ज्ञानतन्तुओं से युक्त, ( हरिभिः ) = अनु भवों  को तुझ तक पहुंचाने वाले ज्ञानसाधनों को ( याहि ) = प्राप्त हो । ( त्वा ) = तुझ को ( केचित् ) = कोई भी ( पाशिनः न ) = जाल वाले लोगों के समान बन्धनकारी प्रलोभन ( न नियेमुः ) = न बांध लें । और तू ( तान् ) = उनको ( धन्वा इव ) = धनुर्धारी के समान ( अति इहि ) = अतिक्रमण कर ।  राजा के पक्ष में स्पष्ट ही हैं । 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - विश्वामित्र:।

    देवता - इन्द्रः।

    छन्दः - बृहती।

    स्वरः - मध्यमः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथेन्द्रो निर्बाधमस्माकं समीपे समागच्छत्वित्याह।

    पदार्थः

    प्रथमः—अध्यात्मपरः। हे (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् परमात्मन् ! त्वम् (मन्द्रैः) आनन्ददायकैः। मदि स्तुतिमोदमदस्वप्नकान्तिगतिषु इति धातोः ‘स्फायितञ्चि०’ उ० २।१३ इति रक्प्रत्ययः। (मयूर-रोमभिः) मयूराणां बर्हिणां बर्हाणीव रोमाणि येषां तैः मयूरबर्हवन्मृदुभिरित्यर्थः (हरिभिः) प्राणैः। प्राणो वै हरिः स हि हरति। कौ० ब्रा० १७।१। (आ याहि) अस्मद्धृदयसदनम् आगच्छ। (त्वा) आगच्छन्तं त्वाम् (केचित्) केऽपि योगमार्गबाधका व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्याविरतिभ्रान्तिदर्शनालब्ध-भूमिकत्वानवस्थित-त्वरूपा अन्तरायाः (मा नियेमुः) न नियच्छन्तु, निवारयितुं न शक्नुयुः। नि पूर्वाद् यम उपरमे धातोर्लोडर्थे लिट्। (न) यथा (पाशिनः) पाशपाणयो व्याधाः (इत्२) गतिमत्, भूमौ गच्छत् गगने उड्डयमानं वा पशुपक्ष्यादिकं नियच्छन्ति। एति गच्छतीति इत्। इण् गतौ धातोः क्विपि नपुंसि द्वितीयैकवचने रूपम्। त्वम् तान् प्रतिबन्धकान् (धन्व३ इव) अन्तरिक्षमिव। धन्व इत्यन्तरिक्षनाम। निघं० १।३। धन्व अन्तरिक्षं, धन्वन्त्यस्मादापः। निरु० ५।५। (अति इहि) अतिक्रम्य आगच्छ। यथा विमानैरन्तरिक्षमतिक्रम्य कश्चिदागच्छति तथैव तान् बाधकानतिक्रम्य त्वमस्मद्धृदयमागच्छेति भावः। यद्वा (धन्व इव) धनुरिव, लक्षणया धनुर्धर इव, तान् बाधकान् अतिक्रम्य आगच्छ। अथ द्वितीयः—राजपरः। हे (इन्द्र) शत्रुविदारक वीर राजन् ! त्वम् (मन्द्रैः४) स्तुत्यैः मन्द्रस्वरैर्वा (मयूररोमभिः) मयूररोमवन्मूदूनि रोमाणि केसराः येषां तैः (हरिभिः) प्रशस्तैः अश्वैः रथे नियुक्तैः (आ याहि) संकटकाले प्रजारक्षणार्थम् आगच्छ। (न) यथा (इत्) गच्छत् उड्डयमानं वा पशुपक्ष्यादिकम् (पाशिनः) पाशहस्ता व्याधा नियच्छन्ति तथा (त्वा) त्वाम् (केचित्) केऽपि शत्रवः (मा नियेमुः) न निवारयितुं शक्नुयुः। (धन्व इव) धनुरिव त्वम् (तान्) शत्रून् (अति इहि) अतिक्रमस्व ॥४॥५ अत्रोपमालङ्कारः श्लेषश्च। रेफस्य मकारनकारयोश्चासकृदावृत्तौ वृत्त्यनुप्रासः। ‘न्द्रै, न्द्र’ ‘न्नि, न्न’ इति छेकानुप्रासः ॥४॥

    भावार्थः

    प्राणानां स्वरूपं मयूररोमवन्मृदु वर्त्तते। अत एव प्राणविद्या मधुविद्येति नाम्ना प्रसिद्धा। प्राणायामद्वारा वयं परमात्मानं स्वहृदयाभ्यन्तरे प्रकटयितुं शक्नुमः। प्रकटीकृतः सोऽस्माकं योगसाधनायां समागच्छतो विघ्नान् निरस्यति। तथैव प्रजाजनैराहूतो राजा सर्वान् शत्रून् पराजित्य राष्ट्रमुन्नयति ॥४॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ३।४५।१, य० २०।५३, अथ० ७।११७।१। सर्वत्र ‘नियेमुरिन्न’ इत्यत्र ‘नियमन् विं न’ इति पाठः। साम० १७१८। २. इदिति पादपूरणः—इति वि०। इत् एव—इति भ०। अस्माभिस्तु ऋचि यजुषि च ‘इत्’ इत्यस्य स्थाने ‘विं न’ इति पाठाद् ‘इत्’ इति नामपदं स्वीकृतम्। स्वरे न कश्चिद् विरोधः। ३. धन्व धन्वना अन्तरिक्षेण। अथवा धन्वना धनुषा। अस्त्रैर्विजित्य तान् इह आगच्छ—इति वि०। धन्वेव मरुदेशमिव पिपासितः—इति भ०। यथा पान्थाः धन्व मरुदेशं शीघ्रमतिगच्छन्ति तद्वद् गमनप्रतिबन्धकारिणस्तानतीत्य शीघ्रम् एहि आगच्छ—इति सा०। ४. मन्द्रैः मदनशीलैः—स्तुत्यैर्या—इति भ०। मन्द्रस्वरैः गम्भीरस्वरैः—इति वि०। ५. दयानन्दर्षिणा ऋग्भाष्ये यजुर्भाष्ये च मन्त्रोऽयं राजपक्षे व्याख्यातः।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O soul, come with pleasure-giving cobwebs of knowledge, brilliant like the peacock’s plumes, and with instruments of learning. No alluring temptations can entrap thee, as a hunter does the bird. Thou rather overcomest them, as an archer does an animal!

    Translator Comment

    Them: Temptations.

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    Meaning

    Indra, lord of honour and excellence, come by the rays of light, beautiful and colourful as the feathers of the peacock. May none, as fowlers ensnare birds, catch you. Out skirt the fowlers as a rainbow and come. (Rg. 3-45-1)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (इन्द्र) હે પરમૈશ્વર્યવાન પરમાત્મન્ ! તું (मयूररोमभिः मन्द्रैः हरिभिः) મોરના રોમ - રુંવાટાં સમાન સુંદર પોતાની રશ્મિઓ-જ્ઞાન જ્યોતિઓ દ્વારા જે તારા સ્વરૂપને પ્રદર્શિત કરતી તને અમારા સુધી લાવનારી અને અમને તારા સુધી પહોંચાડનારી છે તેના દ્વારા (आयाहि) સમગ્ર રૂપથી અમને પ્રાપ્ત થાય. (केचित्) કોઈ બીજા (त्वा मा नियेमुः इत्) તને અવરોધ કરે નહિ-રોકે નહિ (पाशिनः न) બાંધનારા શિકારીની સમાન (धन्व इव तान् अतीहि) અથવા એ બાધક વચ્ચે આવે તો તેને મરુ દેશોની માફક અતિક્રમણ કરીને - ઓળંગીને પ્રાપ્ત થાય. (૪)

     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : હે પરમાત્મન્ ! તું મારે પક્ષીની ચમક-દમક સુંદર રોમ-રુવાટાં સમાન મનનોહક જ્ઞાન રશ્મિઓ જ્ઞાન જ્યોતિઓ જે તારા સ્વરૂપને પ્રદર્શિત કરતી તને અમારા સુધી લાવનારી અને અમને તારા સુધી પહોંચાડનારી આકર્ષિત કરનારી છે, તેના દ્વારા તું સમગ્ર રૂપથી પ્રાપ્ત થા.          
                   પરમાત્મન્ ! તારા આગમનને રોકનાર કોઈ દોષ અમારી અંદર ઉત્પન્ન ન થાય, જે અમારી સદ્વૃત્તિઓને શિકારીની સમાન રોકીને તને અમારા સુધી પહોંચાડવામાં બાધક બને, અમારાથી અન્યો દ્વારા પ્રકટ કરેલ ખોટા દોષોને તું મરુ પ્રદેશની સમાન સૂકા અને નીરસ માનીને તેને ઓળંગીને પ્રાપ્ત થા. (૪)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    سب رکاوٹوں کو دُور کرتے ہوئے بھگوان آؤ

    Lafzi Maana

    جیسے کوئی راجہ (مندری اِندری مُیور روم بھی ہری بھی آیا ہی) آسانی سے رتھ کو لے جانے والے گھوڑوں کے ذریعے جن پر موروں کے پنکھ شوبھا دے رہے ہیں، آتا ہے، ویسے ہی ہے پرمیشور! آنند دائیک یوگ کے اسباق رسیدہ عابد اُپاسکوں کے ہردیوں میں (کے چِت تُوامانی یے موں) آنے سے کوئی بھی طاقتیں آپ کو روک نہیں سکتیں، جیسے جال باندھے ہوئے (پاشنہ) شکاری اُڑتے پکھشی کو نہیں روک سکتا یا جیسے کوئی (اِودھنواتی) ہمت ور آدمی ریگستان کو عبور کر کے آ جاتا ہے، ویسے آپ (تان پرتی اِہی) اُن سبھی رکاوٹوں کو لانکھ کر آ جائیے۔

    Tashree

    جیسے راجہ کو کوئی روکے کسی کی کیا مجال، ویسے ہی بھگتوں کے گھر میں آؤ حضرت باکمال۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    प्राणांचे स्वरूप मोराच्या रोमाप्रमाणे मृदू असते. त्यासाठी प्राणविद्या मधुविद्येच्या नावाने प्रसिद्ध आहे. प्राणायामाद्वारे आम्ही परमात्म्याला आपल्या हृदयात प्रकट करू शकतो. प्रकट झालेला तो आमच्या योगसाधनेद्वारे येणाऱ्या विघ्नांना दूर करतो. याचप्रकारे प्रजाजनांकडून आमंत्रित केल्यावर राजा सर्व शत्रूंना पराजित करून राष्ट्राला उन्नत करतो. ॥४॥

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    विषय

    इंद्राने निर्बाध आमच्याजवळ यावे-

    शब्दार्थ

    (प्रथम अर्थ) (अध्यात्मपर) - (उपासक वा योगसाधक परमेश्वरास प्रार्थना करीत आहे) हे (इन्द्र) परम ऐश्वर्यवान परमेश्वर, आपण (मन्द्रैः) आनंददायक (मयूररोमभिः) मरपंखाप्रमाणे मृदु अशा (हरिभिः) प्राणशक्तीद्वारे (आ यहि) या अर्थात आमच्या हृदयात प्रकट व्हा. (त्वा) (जेव्हा तुम्ही हृदयात प्रकट व्हाल, जेव्हा आम्ही ध्यानावस्थेत तुमच्या अस्तित्वाचा अनुभव करीत असू) त्या वेळी (केचित्) योगमार्गात वा ध्यानावस्थेत बाधक अशा व्याधी, स्त्यान, संशय, प्रमाद, आलस्म, अविरती भ्रान्तिदर्शन, अलन्धभूमिकत्व, (आम्ही काय व कशासाठी करतोय, हेच माहीत नसणे) अनववस्यि तत्त्व, (लागलेले ध्यान स्थिर न राहणे आदी आमची विघ्ने आपण हृदयात येताना त्या बाधा आम्हास (मा मियेयुः) ऐकू शकणार नाहीत, असे करा. (न) जसे (पाशिनः) पाश हातात घेतलेल्या पारधी (इत्) गतिमान पशूला भूमीवर वा आकाशात उडणाऱ्या पक्ष्याला पाशाद्वारे रोकू शकतो, हसे आमचे होऊ नये. (वान्) त्या प्रतिबंधक पूर्ववर्णित बाधा (धन्व इव) अंतरिक्षाप्रमाणे पार करून आपल्या सर्वव्यापकत्वामुळे आपण हृदयी प्रकट व्हा. जसे कोणी विमानाने अंतरिक्ष पार करून येतो, तद्वत बाधा दूर करून आपण आमच्या हृदयात प्रकट व्हा अथवा दुसरा अर्थ - (धन्व इव) एखाद्या धनुर्धारी मनुष्याप्रमाणे बाधा- विघ्ने दूर सारण्यात आम्हीही यशस्वी होऊ शकू.।। द्वितीय अर्थ - (राजापर) हे (इन्द्र) शत्रुविदारक वीर राजा, आपण (मन्द्रैः) प्रशंसनीय, गंभीरस्वरवान (मयूररोमभिः) मोरपिसासारखे मृदू रोम असलेल्य (हरिभिः) रथात जुंपलेल्या उत्तम वंशाच्या अश्वाप्रमाणे (आ याहि) संकटकाळी आमच्याकडे धावून या. (न) जसे (इत्) भूमीवर चालणाऱ्या प्राण्याला वा आकाशात विहार करणाऱ्या पक्ष्यांना पारधी (पाशिनः) पाशब्द करतो, तद्वत (त्वा) तुम्हाला (केचित्) कोणीही शत्रू (या नियेमुः) बद्ध करू शकणार नाही, असे करा. (धन्व इव) धनुष्याप्रमाणे आपण (तान्) त्या शत्रूंना (अति इहि) अतिक्रान्त वा पराजित करा (अशी आम्हा प्रजाजनांची कामना प्रार्थना आहे.।।४।।

    भावार्थ

    प्रणांचे स्वरूप मोरपिसाप्रमाणे कोमल असते, म्हणूनच प्राण विद्येला मधुविद्याही म्हणतात. प्राणायामाद्वारे आम्ही परमेश्वराला आमच्या हृदयात प्रकट करू शकतो. तसा प्रकट झालेला परमेश्वर आमच्या योगसाधना मागा४त देणाऱ्या विघ्न- बाधा दूर करतो. त्याचप्रमाणे प्रजाजनांनी रक्षणासाठी हाक मारल्यानंतर राजादेखील सर्व शत्रंना पराजित तरून राष्ट्राचा उत्कर्ष घडवू शकतो.।।४।।

    विशेष

    या मंत्रात श्लेष आणि उपमा अलंकार आहेत. र, म, आणि न या वर्णांची अनेक वेळा आवृत्ती असल्यामुळे येथे वृत्यनुप्रास अलंकार आहे. ‘न्द्रै, न्द्र, न्नि, न्न’ या वर्णांमुळे छेकानुप्रसा आहे.।।४।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    இந்திரனே மகிழ்ச்சியுடன் மயில் ரோமங்களுடனான குதிரைகளோடு இங்குவரவும், பாலைவனத்தைத் தாண்டும் யாத்திரிகைளைப்போல் துரிதமாக வேடர்கள் பட்சியை தடுப்பது போல் ஒருவரும் உன் வழியைத் தடுக்கவேண்டாம்.

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