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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 254
ऋषिः - रेभः काश्यपः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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या꣡ इ꣢न्द्र꣣ भु꣢ज꣣ आ꣡भ꣢रः꣣꣬ स्व꣢꣯र्वा꣣ꣳ अ꣡सु꣢रेभ्यः । स्तो꣣ता꣢र꣣मि꣡न्म꣢घवन्नस्य वर्धय꣣ ये꣢ च꣣ त्वे꣢ वृ꣢क्त꣡ब꣢र्हिषः ॥२५४॥
स्वर सहित पद पाठयाः꣢ । इ꣣न्द्र । भु꣡जः꣢ । आ꣡भ꣢꣯रः । आ꣣ । अ꣡भरः꣢꣯ । स्व꣢꣯र्वान् । अ꣡सु꣢꣯रेभ्यः । अ । सु꣣रेभ्यः । स्तोता꣡र꣢म् । इत् । म꣣घवन् । अस्य । वर्धय । ये꣢ । च꣣ । त्वे꣡इति꣢ । वृ꣣क्त꣡ब꣢र्हिषः । वृ꣣क्त꣢ । ब꣣र्हिषः । ॥२५४॥
स्वर रहित मन्त्र
या इन्द्र भुज आभरः स्वर्वाꣳ असुरेभ्यः । स्तोतारमिन्मघवन्नस्य वर्धय ये च त्वे वृक्तबर्हिषः ॥२५४॥
स्वर रहित पद पाठ
याः । इन्द्र । भुजः । आभरः । आ । अभरः । स्वर्वान् । असुरेभ्यः । अ । सुरेभ्यः । स्तोतारम् । इत् । मघवन् । अस्य । वर्धय । ये । च । त्वेइति । वृक्तबर्हिषः । वृक्त । बर्हिषः । ॥२५४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 254
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 3;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 3;
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विषय - दैवासुर सम्पद् - विभाग
पदार्थ -
'भुज पालने' धातु से भुज शब्द बना है। जो पदार्थ मानव के पालन के लिए आवश्यक हैं अथवा मनुष्य को जिनका अवश्य पालन करना है, वे भुज हैं। ये ही पुरुषार्थ कहलाते हैं। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष - यह इनका क्रम है। इनका सामान्य अभिप्राय यह है कि धर्मपूर्वक धन कमाकर, संसार के उचित कामों को ही स्वीकार करना मोक्ष का मार्ग है। दैवी वृत्तिवाले मनुष्य इस तत्त्व को कभी नहीं भूलते कि १. धर्मपूर्वक ही अर्थ कमाना है और २. जीवन का उद्देश्य काम को न बनाकर मोक्ष को रखना है। इसके विपरीत आसुरी सम्पत्तिवाले लोग धर्म और मोक्ष को भूल जाते हैं, वे चतुर्भुज नहीं रहते, उनके दो ही ‘भुज्' रह जाते हैं—‘अर्थ और काम'। प्रभु का स्तोता 'रेभः' कहता है कि हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशाली प्रभो! (याः भुजः) = जिन पुरुषार्थों को आपने (असुरेभ्यः) = अपने ही स्वार्थ में लगे हुए, प्राण-पोषण में तत्पर असुरों से (आभरः)=[आहरः] हर लिया है, हे (मघवन्) = पापलवशून्य ऐश्वर्यवाले प्रभो ! (अस्य) = इन पुरुषार्थों से (इत्)=निश्चयपूर्वक (स्तोतारम्) = अपने उपासक को (वर्धय) = बढ़ाइए और ये (च) = जो (वृक्तबर्हिष:) = उच्छिन्न वासनाओंवाले, निर्मल हृदय पुरुष (त्वे) = आपकी शरण में आये हैं, उन्हें भी इन पुरुषार्थों से बढ़ाइए ।
असुर लोग जिन अर्थ, काम के विषय में अत्यन्त जागरूक हैं, दैवी सम्पत्तिवाले उन्हें जीवन में गौण स्थान देते हैं, इसके विपरीत जिन धर्म और मोक्ष के विषय में ये जागरूक हैं, वहाँ असुर लोग सोये हुए हैं, उन्हें इनका ध्यान भी नहीं है। धर्म और मोक्ष ही महत्त्वपूर्ण हैं, ऐसी इस रेभ की दृष्टि है।
‘रेभः काश्यप’–‘पश्यन् मुनि' इस मन्त्र का ऋषि है। यह ‘स्वर्वान्'= स्वर्गलोकवाला होता है। इसके विपरीत अर्थ और काम को महत्त्व देना नरकरूप परिणामवाला है 'पतन्ति नरकेऽशुचौ'=कामासक्त, अपवित्र नरक में पड़ते हैं।
भावार्थ -
मैं धर्म और मोक्ष को महत्त्व देता हुआ स्वर्ग में रहूँ। अर्थ व काम को महत्त्व देकर नरक का भागी न बनूँ।
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