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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 269
ऋषिः - नृमेधपुरुमेधावाङ्गिरसौ
देवता - इन्द्रः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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आ꣢ नो꣣ वि꣡श्वा꣢सु꣣ ह꣢व्य꣣मि꣡न्द्र꣢ꣳ स꣣म꣡त्सु꣢ भूषत । उ꣢प꣣ ब्र꣡ह्मा꣢णि꣣ स꣡व꣢नानि वृत्रहन्परम꣣ज्या꣡ ऋ꣢चीषम ॥२६९॥
स्वर सहित पद पाठआ꣢ । नः꣣ । वि꣡श्वा꣢꣯सु । ह꣡व्य꣢꣯म् । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । स꣣म꣡त्सु꣢ । स꣣ । म꣡त्सु꣢꣯ । भू꣣षत । उ꣡प꣢꣯ । ब्र꣡ह्मा꣢꣯णि । स꣡व꣢꣯नानि । वृ꣣त्रहन् । वृत्र । हन् । परमज्याः꣢ । प꣣रम । ज्याः꣢ । ऋ꣣चीषम ॥२६९॥
स्वर रहित मन्त्र
आ नो विश्वासु हव्यमिन्द्रꣳ समत्सु भूषत । उप ब्रह्माणि सवनानि वृत्रहन्परमज्या ऋचीषम ॥२६९॥
स्वर रहित पद पाठ
आ । नः । विश्वासु । हव्यम् । इन्द्रम् । समत्सु । स । मत्सु । भूषत । उप । ब्रह्माणि । सवनानि । वृत्रहन् । वृत्र । हन् । परमज्याः । परम । ज्याः । ऋचीषम ॥२६९॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 269
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 4;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 4;
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विषय - साम्यवाद [ ३ ] – साम्यवाद कैसे प्रचलित हो ? प्रभु स्मरण [ब्रह्म+सवन ] के द्वारा
पदार्थ -
गत दो मन्त्रों में उन दो सिद्धान्तों का उल्लेख हुआ है जो आज के युग में 'साम्यवाद' के नाम से प्रसिद्ध हैं। किसी भी समाज के उत्थान व दीर्घजीवन के लिए वे आवश्यक हैं, परन्तु उन सिद्धान्तों का प्रचलन तभी हो सकता है जब समाज के अङ्गभूत व्यक्ति प्रभु को स्मरण करते हुए अपना पारस्परिक बन्धुत्व अनुभव करें। घर के अन्दर तो बन्धुत्व अनुभव होता है तभी यह सिद्धान्त वहाँ लागू हो पाता है, अतः मन्त्र में 'नृ-मेध' के द्वारा कहा जाता है कि (नः) = हमारी (विश्वासु समत्सु) = सब सभाओं में [सम्+अत्=अज्] (हव्यम् इन्द्रम्)=उस पुकारने योग्य प्रभु को (आभूषत) = सब प्रकार से अलंकृत किया जाए । इकट्ठा होने पर सदा, प्रत्येक कार्य के प्रारम्भ में हम उस प्रभु का स्मरण करें जिससे हम पारस्परिक बन्धुत्व का अनुभव करें। हम एक हों और (उप) = सदा प्रभु के समीप रहने का प्रयत्न करें। उसके समीप रहने से हमारे जीवन में (ब्रह्माणि) = स्तोत्र होंगे, (सवनानि) = यज्ञ होंगे। प्रभु के समीप, उसकी महिमा को देखते हुए, उसके स्तोत्रों का उच्चारण तो हम करेंगे ही, साथ ही हमारा जीवन यज्ञमय होगा। हम सदा उत्तम कर्मों को करनेवाले होंगे ।
हे (वृत्रहन्) = आप वृत्रों को समाप्त करनेवाले हैं, हम आपके समीप रहेंगे तो आप हमारी वासनाओं को विनष्ट कर डालेंगे। (परमज्या) = वे प्रभु तो एक प्रबल शक्ति हैं [ज्या overpowering strength] उनके समीप रहकर मैं भी तो उस शक्ति से सम्पन्न होऊँगा ।
(ऋचीषम) = वे स्तुति के समान गुणोंवाले हैं। जिस रूप में हम प्रभु का स्मरण करते हैं, तदनुरूप गुणों को हम धारण कर पाते हैं, अतः प्रभु का स्मरण करते हुए हम अपने जीवनों को उच्च बना पाएँगे।
प्रभु के साथ यह सङ्गम हमारा पालन व पूरण करेगा- हम 'पुरुमेध' होंगे। प्रभु के सम्पर्क में आकर बन्धुत्व अनुभव करने के कारण हम ‘नृमेध' तो होंगे ही, सबके साथ मिलकर चलेंगे। उल्लिखित साम्यवाद के सिद्धान्त हमारे जीवन-व्यवहार में सहज समा जाएँगे।
भावार्थ -
प्रभु-स्मरण से हम सबके साथ बन्धुत्व का अनुभव करें।
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