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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 281
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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इ꣡न्द्रा꣢ग्नी अ꣣पा꣢दि꣣यं꣡ पूर्वागा꣢꣯त्प꣣द्व꣡ती꣢भ्यः । हि꣢त्वा꣡ शिरो꣢꣯ जि꣣ह्व꣢या꣣ रा꣡र꣢प꣣च्च꣡र꣢त्त्रि꣣ꣳश꣢त्प꣣दा꣡ न्य꣢क्रमीत् ॥२८१॥
स्वर सहित पद पाठइ꣡न्द्रा꣢꣯ग्नी । इ꣡न्द्र꣢꣯ । अ꣣ग्नीइ꣡ति꣢ । अ꣣पा꣢त् । अ꣣ । पा꣢त् । इ꣣य꣢म् । पू꣡र्वा꣢꣯ । आ । अ꣣गात् । पद्व꣡ती꣢भ्यः । हि꣣त्वा꣢ । शि꣡रः꣢꣯ । जि꣣ह्व꣡या꣢ । रा꣡र꣢꣯पत् । च꣡र꣢꣯त् । त्रिँ꣣श꣢त् । प꣣दा꣡नि꣢ । अ꣣क्रमीत् ॥२८१॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्राग्नी अपादियं पूर्वागात्पद्वतीभ्यः । हित्वा शिरो जिह्वया रारपच्चरत्त्रिꣳशत्पदा न्यक्रमीत् ॥२८१॥
स्वर रहित पद पाठ
इन्द्राग्नी । इन्द्र । अग्नीइति । अपात् । अ । पात् । इयम् । पूर्वा । आ । अगात् । पद्वतीभ्यः । हित्वा । शिरः । जिह्वया । रारपत् । चरत् । त्रिँशत् । पदानि । अक्रमीत् ॥२८१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 281
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 5;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 5;
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विषय - सभी घड़ी आगे और आगे [वह श्रद्धा ]
पदार्थ -
गत मन्त्र में वर्णित श्रद्धा का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि (अपात् इयम्) = बिना पाँववाली भी यह श्रद्धा (पद्वतीभ्यः) = पाँववाली तर्क व क्रियाशक्तियों से (इन्द्राग्नी) = शक्ति व प्रकाश के तत्त्व तक (पूर्वा) = पहले (आगात्) = पहुँचती है। तर्क में चहल-पहल है, क्रिया तो है ही चहल-पहल का नाम । इन तर्क और क्रिया दोनों से विपरीत श्रद्धा शान्त है । मन्त्र में इसी बात को काव्यमय ढङ्ग से इस प्रकार कहा है कि श्रद्धा (अपात्) = बिना पाँववाली है और तर्क और क्रिया पाँववाले हैं। तर्क व क्रिया की अपेक्षा हमें शक्ति व ज्ञान तक पहुँचाने में श्रद्धा का अधिक स्थान है। श्रद्धा हमें शक्तिसम्पन्न और हमारे मस्तिष्क को प्रकाशमय बनाती है । इस श्रद्धा को धारण करनेवाला व्यक्ति (शिरः) = मस्तिष्क को अर्थात् ज्ञान को (हित्वा) = धारण करके चरत्=क्रियाशील होता हुआ (जिह्वया रारपत्) = जिह्वा से उस प्रभु के नामों का उच्चारण करता है।
यह श्रृद्धा (त्रिंशत् पदा) = दिन के तीस के तीस मुहूर्त (न्यक्रमीत्) = [नि=निश्चय] निश्चय से आगे और आगे बढ़ती है।
श्रद्धा सदा हमारी उन्नति का कारण बनती है। हमें शक्ति सम्पन्न करती है, अतः हम 'भरद्वाज' बनते हैं, हमें ज्ञान सम्पन्न करती हैं, अतः हम 'बार्हस्पत्य होते हैं।
भावार्थ -
हम इस तत्त्व को समझकर चलें कि तर्क और क्रिया की अपेक्षा श्रद्धा का स्थान अधिक ऊँचा है। तर्क और क्रिया रजः प्रधान हैं, श्रद्धा सात्त्विक है।
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