Loading...

सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 280
ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः देवता - इन्द्रः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
5

क꣡स्तमि꣢꣯न्द्र त्वा वस꣣वा꣡ मर्त्यो꣢꣯ दधर्षति । श्र꣣द्धा꣡ हि ते꣢꣯ मघव꣣न्पा꣡र्ये꣢ दि꣣वि꣡ वा꣣जी꣡ वाज꣢꣯ꣳ सिषासति ॥२८०॥

स्वर सहित पद पाठ

कः꣢ । तम् । इ꣣न्द्र । त्वावसो । त्वा । वसो । आ꣢ । म꣡र्त्यः꣢꣯ । द꣣धर्षति । श्रद्धा꣢ । श्र꣣त् । धा꣢ । हि । ते꣣ । मघवन् । पा꣡र्ये꣢꣯ । दि꣣वि꣢ । वा꣣जी꣢ । वा꣡ज꣢꣯म् । सि꣣षासति ॥२८०॥


स्वर रहित मन्त्र

कस्तमिन्द्र त्वा वसवा मर्त्यो दधर्षति । श्रद्धा हि ते मघवन्पार्ये दिवि वाजी वाजꣳ सिषासति ॥२८०॥


स्वर रहित पद पाठ

कः । तम् । इन्द्र । त्वावसो । त्वा । वसो । आ । मर्त्यः । दधर्षति । श्रद्धा । श्रत् । धा । हि । ते । मघवन् । पार्ये । दिवि । वाजी । वाजम् । सिषासति ॥२८०॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 280
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 5;
Acknowledgment

पदार्थ -

वसिष्ठ=वश करनेवालों में श्रेष्ठ इस मन्त्र का ऋषि है । वह ऐसा बन इसलिए पाया है कि वह मैत्रावरुणि= मित्र और वरुण अर्थात् प्राण और अपान की साधना करनेवाला है। यह इन्द्रियों को वश में करके प्रभु का दर्शन करता है। इसे प्रभु में अटूट श्रद्धा है। इस श्रद्धा को यह इन शब्दों में व्यक्त करता है कि (इन्द्र) = हे परमैश्वर्यशाली प्रभो! (कः) = कौन (मर्त्यः) = मनुष्य (तम्) = उसे (आदधर्षति)=धर्षित कर सकता है? जिसे (त्वा वसुम्) = आप वसानेवाले हों, जिसकी प्रभु रक्षा करते हैं उसे संसार की सारी शक्तियाँ मिलकर भी नष्ट नहीं कर सकतीं। (‘अरक्षितं तिष्ठति दैवरक्षितम् ') । हमारे प्रयत्न होने पर भी वस्तुतः हमारी रक्षा तो प्रभुकृपा से ही होती है। वास्तविकता यह है कि प्रभुकृपा हमें प्रयत्नशील भी बनाती है।

हे (मघवन्) = निष्पाप ऐश्वर्यवाले प्रभो! श्(रद्धा हि ते)= निश्चय से आपपर की गई श्रद्धा मनुष्य को उस (दिवि) = प्रकाश में रखती है, जोकि (पार्ये) = इस श्रद्धा सम्पन्न पुरुष को सब उलझनों से पार पहुँचा देता है। श्रद्धावाला शिष्य आचार्य से ज्ञान है, इसी प्रकार श्रद्धावाला भक्त प्रभु से प्रकाश पाता है। प्रकाश ही नहीं (वाजी)= शक्तिशाली बनकर (वाजं सिषासति)=बल का भी सेवन करनेवाला होता है एवं श्रद्धा हमारे अन्दर प्रकाश और शक्ति दो तत्त्वों को जन्म देती है। 

भावार्थ -

मुझमें श्रद्धा हो जिससे मैं प्रकाश को देखूँ और शक्ति को प्राप्त करूँ।

इस भाष्य को एडिट करें
Top