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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 312
ऋषिः - नोधा गौतमः देवता - इन्द्रः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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प्र꣡ यो रि꣢꣯रि꣣क्ष꣡ ओज꣢꣯सा दि꣣वः꣡ सदो꣢꣯भ्य꣣स्प꣡रि꣢ । न꣡ त्वा꣢ विव्याच꣣ र꣡ज꣢ इन्द्र꣣ पा꣡र्थि꣢व꣣म꣢ति꣣ वि꣡श्वं꣢ ववक्षिथ ॥३१२॥

स्वर सहित पद पाठ

प्र꣢ । यः । रि꣣रिक्षे꣢ । ओ꣡ज꣢꣯सा । दि꣣वः꣢ । स꣡दो꣢꣯भ्यः । प꣡रि꣢꣯ । न । त्वा꣣ । विव्याच । र꣡जः꣢꣯ । इ꣣न्द्र । पा꣡र्थिव꣢꣯म् । अ꣡ति꣢ । वि꣡श्व꣢꣯म् । व꣣वक्षिथ ॥३१२॥


स्वर रहित मन्त्र

प्र यो रिरिक्ष ओजसा दिवः सदोभ्यस्परि । न त्वा विव्याच रज इन्द्र पार्थिवमति विश्वं ववक्षिथ ॥३१२॥


स्वर रहित पद पाठ

प्र । यः । रिरिक्षे । ओजसा । दिवः । सदोभ्यः । परि । न । त्वा । विव्याच । रजः । इन्द्र । पार्थिवम् । अति । विश्वम् । ववक्षिथ ॥३१२॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 312
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 10
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 8;
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पदार्थ -

(यः) = जो (ओजसा) = आगे बढ़ने की शक्ति के द्वारा [ओज = to increase] (दिवः) = द्युलोक के (सदोभ्यः) = स्थानों से (परि) = परे प्ररिरिक्षे निकल जाता है, त्वा उस तुझे हे इन्द्र शत्रुओं के विदारण करनेवाले जीव! (रजः) = यह अन्तरिक्षलोक अथवा (पार्थिवम्) = यह पृथिवीलोक (न) = नहीं (विव्याच) = व्याप्त कर लेता। इस इन्द्र को तमोगुण व रजोगुण ने क्या घेरना ! यह तो सत्त्व गुण से भी ऊपर उठ निस्त्रैगुण्य हो गया है, गुणातीत सा हो गया है।

‘प्र रिरिक्षे' शब्द का ठीक अर्थ [रिच्- खाली करना] पिछले स्थान को खाली करके आगे बढ़ जाना है। यह पृथिवीलोक से अन्तरिक्षलोक में उठता है, अन्तरिक्ष से द्युलोक में, और द्युलोक के भी स्थानों से यह आगे बढ़ने का ध्यान करता है। यही तमोगुण व रजोगुण से ऊपर उठ सत्त्वगुण में पहुँचना है। सत्त्वगुण में भी यह उत्तम सात्त्विक बनता है। यह निचली-निचली श्रेणी को छोड़कर, तीनों तामस, तीनों राजस तथा निचली दो सात्त्विक इन आठ श्रेणियों को छोड़कर आज अपने को नौवीं श्रेणी में धारण कनेवाला 'नो-धा' है। इसकी इन्द्रियाँ प्रशस्त तो हैं ही, अतः यह 'गौतम' है। यह (विश्वम्) = हमारे न चाहते हुए भी अन्दर घुस आनेवाले काम-क्रोध आदि शत्रुओं को (अति ववक्षिथ) = पार करके अपने को इस उत्तम स्थिति में प्राप्त करानेवाला है और इसीलिए (विश्वम्) = त्रिलोकी को (अतिववक्षिथ) = पार कर गया है पृथिवी, अंतरिक्ष व द्युलोक को पार करके 'ब्रह्मलोक' में पहुँच गया है।

भावार्थ -

हम उत्तम सात्त्विक गति को प्राप्त करने का प्रयत्न करें।

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