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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 314
ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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यो꣡नि꣢ष्ट इन्द्र꣣ स꣡द꣢ने अकारि꣣ त꣡मा नृभिः꣢꣯ पुरूहूत꣣ प्र꣡ या꣢हि । अ꣢सो꣣ य꣡था꣢ नोऽवि꣣ता꣢ वृ꣣ध꣢श्चि꣣द्द꣢दो꣣ व꣡सू꣢नि म꣣म꣡द꣢श्च꣣ सो꣡मैः꣢ ॥३१४॥

स्वर सहित पद पाठ

यो꣡निः꣢꣯ । ते꣣ । इन्द्र । स꣡द꣢꣯ने । अ꣣कारि । त꣢म् । आ । नृ꣡भिः꣢꣯ । पु꣣रूहूत । पुरु । हूत । प्र꣢ । या꣢हि । अ꣡सः꣢꣯ । य꣡था꣢꣯ । नः꣣ । अविता꣢ । वृ꣣धः꣢ । चि꣣त् । द꣡दः꣢꣯ । व꣡सू꣢꣯नि । म꣣म꣡दः꣢ । च꣣ । सो꣡मैः꣢꣯ ॥३१४॥


स्वर रहित मन्त्र

योनिष्ट इन्द्र सदने अकारि तमा नृभिः पुरूहूत प्र याहि । असो यथा नोऽविता वृधश्चिद्ददो वसूनि ममदश्च सोमैः ॥३१४॥


स्वर रहित पद पाठ

योनिः । ते । इन्द्र । सदने । अकारि । तम् । आ । नृभिः । पुरूहूत । पुरु । हूत । प्र । याहि । असः । यथा । नः । अविता । वृधः । चित् । ददः । वसूनि । ममदः । च । सोमैः ॥३१४॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 314
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 9;
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पदार्थ -

(उपासना)–गत मन्त्र का सात्त्विक आहार का सेवन करनेवाला अपनी सात्त्विक अन्तःकरण की वृत्ति के कारण प्रभु का स्तोता बनता है। यही सात्त्विक आहार का पञ्चम लाभ था। वह प्रभु से कहता है कि (इन्द्र) = हे सर्वैर्यशाली प्रभो! (सदने) = इस तेरे द्वारा दिये गये मृण्मय गृह में (ते) = तेरे लिए (यीनि:) = हृदयरूपी स्थान (अकारि) = मेरे द्वारा ही बनाया गया है -निश्चित किया गया है। मैंने इस घर में हृदय को तेरे बिठाने के लिए ही अशुद्ध भावनाओं से खाली कर शुद्ध कर डाला है।

हे (नृभिः पुरुहूतः) = मनुष्यों से बहुत पुकारे गये प्रभो! आपको ही तो प्रत्येक कष्ट पतित पुरुष कष्ट-निवृत्ति के लिए पुकारता है। वे आप (तम्) = उस हृदयरूप स्थान में (आ-प्र-याहि) = सर्वतः प्रकर्षेण प्राप्त होओ, अर्थात् मैं अपने हृदय में आपका ही स्मरण करूँ।

लाभ - १. (यथा) = जिससे (आप नः) = हमारे (अविता) = रक्षक (असः) = हों। उपासक प्रभु को अपना रक्षक मानता है - अतएव वह निर्भीक है। उसी प्रकार निर्भीक जैसेकि मातृगोद में स्थित बच्चा। यह उपासक प्रभु को ही उपस्तरण व अपिधान के रूप में देखता है। २. वृधे च = आप हमारी वृद्धि के लिए होओ। अग्नि के सम्पर्क में जब तक गोला रहता

2. (वृधे च)=आप हमारी वृद्धि के लिए होओ। अङ्गिन के सम्पर्क में जब तक गोला रहता है तेजस्वी बना रहता है, अलग हुआ और ठण्ढ़ा हुआ। वही अवस्था जीव की है—प्रभु के सम्पर्क मे तेजस्वी, अलग हुआ और निस्तेज, फिर वृद्धि कहाँ?

३. (दद: वसूनि) = हे प्रभो अपने उपासक का योगक्षेम आप ही तो चलाते हैं। निवास के लिए आवश्यक सब वस्तुएँ आप मुझे देते हो ।

४. भोगविलास से दूर रख यह उपासना मनुष्य को शक्तिशाली बनाती है, अतः कहते हैं कि ('सोमैः ममदः च) = आप शक्ति के द्वारा मेरे जीवन को उल्लासमय बनाते हो। 

भावार्थ -

उपासना के चार लाभ हैं- १. प्रभु द्वारा रक्षण २. वृद्धि - विकास, ३. वसुओं की प्राप्ति और ४. शक्ति के कारण उल्लासमय जीवन ।

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