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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 322
ऋषिः - सुहोत्रो भारद्वाजः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
5
अ꣡पू꣢र्व्या पुरु꣣त꣡मा꣢न्यस्मै म꣣हे꣢ वी꣣रा꣡य꣢ त꣣व꣡से꣢ तु꣣रा꣡य꣢ । वि꣣रप्शि꣡ने꣢ व꣣ज्रि꣢णे꣣ श꣡न्त꣢मानि꣣ व꣡चा꣢ꣳस्यस्मै꣣ स्थ꣡वि꣢राय तक्षुः ॥३२२॥
स्वर सहित पद पाठअ꣡पू꣢꣯र्व्या । अ । पू꣣र्व्या । पुरुत꣡मा꣢नि । अ꣣स्मै । महे꣢ । वी꣣रा꣡य꣢ । त꣣व꣡से꣢ । तु꣣रा꣡य꣢ । वि꣣रप्शि꣡ने । वि꣣ । रप्शि꣡ने꣢ । व꣣ज्रि꣡णे꣣ । श꣡न्त꣢꣯मानि । व꣡चां꣢꣯ऽसि । अ꣣स्मै । स्थ꣡वि꣢꣯राय । स्थ । वि꣣राय । तक्षुः ॥३२२॥
स्वर रहित मन्त्र
अपूर्व्या पुरुतमान्यस्मै महे वीराय तवसे तुराय । विरप्शिने वज्रिणे शन्तमानि वचाꣳस्यस्मै स्थविराय तक्षुः ॥३२२॥
स्वर रहित पद पाठ
अपूर्व्या । अ । पूर्व्या । पुरुतमानि । अस्मै । महे । वीराय । तवसे । तुराय । विरप्शिने । वि । रप्शिने । वज्रिणे । शन्तमानि । वचांऽसि । अस्मै । स्थविराय । स्थ । विराय । तक्षुः ॥३२२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 322
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 10
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 9;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 10
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 9;
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विषय - ब्रह्म के स्तोत्रों का उच्चारण
पदार्थ -
(स्तुति से शान्ति )- ब्रह्म का दर्शन होने पर इन उपासकों के मुख (अस्मै) = इस प्रभु के लिए (वचांसि तक्षुः) = वचनों का निर्माण करते हैं। उनके मुख से उस प्रभु गुणगान के रूप में स्तोत्र उच्चारित होने लगते हैं। ये वचन १. (अपूर्व्या)-अ-पूरणवाले अर्थात् उस प्रभु के गुणों का पूर्णरूप से वर्णन करनेवाले तो नहीं। वह प्रभु तो शब्दातीत है। ('गोरस्तु मौनं व्याख्यानम्')=गुरु का उस प्रभु के विषय में मौन ही व्याख्यान है। पर फिर भी २. (पुरुतमानि) = [ पृ – पूरणे] अधिक-से-अधिक पूरण करनेवाले हैं, अर्थात् शब्दों से जितना सम्भव है उतना ब्रह्म का प्रतिपादन करनेवाले हैं और ३. (शन्तमानि) = अधिक-से-अधिक शान्ति देनेवाले हैं। वे उपासक स्तोत्रों का उच्चारण करते हैं और उन्हें चित्त की अद्भुत शान्ति का लाभ होता है।
(स्तुति का स्वरूप)–ये उपासक १. (महे) = महनीय – पूजनीय, २. (वीराय) = विशेषरूप से शत्रुओं को [वासनाओं को] कम्पित करनेवाले, ३. (तवसे) = बलवान्, ४. (तुराय) = त्वरा सम्पन्न और ५.
(विरप्शिने) = महान्, ६. (वज्रिणे) = दुष्टों के लिए वज्रहस्त, ७. (अस्मै स्थविराय) = इस स्थिर कूटस्थ निर्विकार, स्थाणुरूप प्रभु के लिए गुणगान करते हैं।
इन गुणों से उस प्रभु का स्मरण करता हुआ उपासक भी इन गुणों को अपनाना चाहता है। जिन नामों से स्मरण करना स्वयं भी उन गुणों को अपने अन्दर धारण करना ही तो सच्ची उपासना है। इस सच्ची उपासना को करनेवाला 'सुहोत्र' [ सुशोभना होत्रा स्तुति: praise या speech] इस मन्त्र का ऋषि है। इस सच्ची उपासना से शक्ति-सम्पन्न बनने के कारण वह 'भरद्वाज' है [भरत्+वाज्]।
भावार्थ -
प्रभु की उपासना से हम शान्ति लाभ करें और उत्तम उपासक बनते हुए वीर बनें।
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