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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 364
ऋषिः - प्रियमेध आङ्गिरसः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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वि꣣श्वा꣡न꣢रस्य व꣣स्प꣢ति꣣म꣡ना꣢नतस्य꣣ श꣡व꣢सः । ए꣡वै꣢श्च चर्षणी꣣ना꣢मू꣣ती꣡ हु꣢वे꣣ र꣡था꣢नाम् ॥३६४॥
स्वर सहित पद पाठवि꣣श्वा꣡न꣢रस्य । वि꣣श्व꣢ । नर꣣स्य । वः । प꣡ति꣢꣯म् । अ꣡ना꣢꣯नतस्य । अन् । आ꣣नतस्य । श꣡व꣢꣯सः । ए꣡वैः꣢꣯ । च꣣ । चर्षणीना꣢म् । ऊ꣣ती꣢ । हु꣣वे । र꣡था꣢꣯नाम् ॥३६४॥
स्वर रहित मन्त्र
विश्वानरस्य वस्पतिमनानतस्य शवसः । एवैश्च चर्षणीनामूती हुवे रथानाम् ॥३६४॥
स्वर रहित पद पाठ
विश्वानरस्य । विश्व । नरस्य । वः । पतिम् । अनानतस्य । अन् । आनतस्य । शवसः । एवैः । च । चर्षणीनाम् । ऊती । हुवे । रथानाम् ॥३६४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 364
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 2;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 2;
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विषय - प्रभु किसे वरते हैं
पदार्थ -
मैं प्रभु का सखा बनूँ। प्रभु को प्राप्त करनेवाला बनूँ, पर यह भी तो प्रभुकृपा से ही होता है। ('यमेवैष वृणुते तेन लभ्यः) = प्रभु हमें वरेंगे तो हम प्रभु को प्राप्त करनेवाले बनेंगे। ‘प्रभु किसे वरते हैं?' इस प्रश्न का उत्तर प्रस्तुत मन्त्र में है प्रभु कहते हैं कि (वः) = तुममें से (हुवे) = मैं उसे पुकारता हूँ जो -
१. (शवसः)= शक्ति का (पतिम्) = पति हो । कैसी शक्ति का? [क] (विश्वानरस्य) = सबको आगे ले-चलनेवाली शक्ति का । जिस शक्ति विनियोग सबकी उन्नति के लिए होता है, [ख] (अनानतस्य) = जो दबना नहीं जानती। दबाव में आकर किया गया कर्म कभी ठीक नहीं होता। भद्र कर्म का पहला लक्षण यही है कि ('अब्दधास:') = जो दबकर नहीं किये गए। न हम स्तुति - निन्दा से दबें, न धन व निर्धनता से और न ही जीवन-मरण से । प्रभु का प्रिय वही नता है जो 'सबकी उन्नति की साधक तथा न दबनेवाली शक्ति का पति बनता है। ' ,
२. प्रभु (चर्षणीनाम्) = [चर्षणि=कर्षणि] कृषि करनेवालों की अर्थात् उत्पादक श्रम करनेवालों की (एवैः) = गतियों से, क्रियाओं से हमें अपने समीप पुकारते हैं। प्रभु के प्रिय हम तब बनते हैं जबकि हम सदा गतिशील होते हैं और हमारी सारी गति निर्माण में व्यय होती है।
३. प्रभु के प्रिय बनने का तीसरा साधन (रथानाम् ऊती) = शरीररूप रथों के रक्षण से प्रभु हमें अपने समीप पुकारते हैं। इस शरीररूपी रथ के रक्षण के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण बात हमारी सब क्रियाएँ–‘खाना-पीना, सोना-जागना' इत्यादि नपी- तुली हों तथा साथ ही सर्वोच्च तप ‘मनः प्रसाद’ का ध्यान करते हैं। हम सदा सब स्थितियों में सन्तुष्ट रहते हैं। प्रभु की दी हुई यह चादर बिना फाड़े व मैला किए लौटाएँगे तभी तो हम प्रभु के प्रिय हो सकेंगे। उल्लिखित तीन बातें हमें प्रभु का प्रिय बनाएँगी। शक्ति, गति व स्वास्थ्य को स्थिर रखनेवाला यह व्यक्ति ‘आङ्गिरस' तो है ही, परन्तु यह ऐसा तभी बन पाया है क्योंकि 'प्रियमेध' है।
भावार्थ -
शक्ति, गति व स्वास्थ्य का ध्यान करते हुए हम प्रभु के प्रिय बनें।
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