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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 363
ऋषिः - मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः देवता - इन्द्रः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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उ꣣क्थ꣡मिन्द्रा꣢꣯य꣣ श꣢ꣳस्यं꣣ व꣡र्ध꣢नं पुरुनि꣣ष्षि꣡धे꣢ । श꣣क्रो꣡ यथा꣢꣯ सु꣣ते꣡षु꣢ नो रा꣣र꣡ण꣢त्स꣣ख्ये꣡षु꣢ च ॥३६३॥

स्वर सहित पद पाठ

उ꣣क्थ꣢म् । इ꣡न्द्रा꣢꣯य । शँ꣡स्य꣢꣯म् । व꣡र्ध꣢꣯नम् । पु꣣रुनि꣣ष्षि꣡धे꣢ । पु꣣रु । निष्षि꣡धे꣢ । श꣣क्रः꣢ । य꣡था꣢꣯ । सु꣣ते꣡षु꣢ । नः꣣ । रार꣡ण꣢त् । स꣣ख्ये꣡षु꣢ । स꣣ । ख्ये꣡षु꣢꣯ । च꣣ ॥३६३॥


स्वर रहित मन्त्र

उक्थमिन्द्राय शꣳस्यं वर्धनं पुरुनिष्षिधे । शक्रो यथा सुतेषु नो रारणत्सख्येषु च ॥३६३॥


स्वर रहित पद पाठ

उक्थम् । इन्द्राय । शँस्यम् । वर्धनम् । पुरुनिष्षिधे । पुरु । निष्षिधे । शक्रः । यथा । सुतेषु । नः । रारणत् । सख्येषु । स । ख्येषु । च ॥३६३॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 363
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 2;
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पदार्थ -

(इन्द्राय) = परमैश्वर्यशाली प्रभु के लिए (उक्थ्यम्) = स्तोत्र या स्तुतिवचन (शंस्यम्) = उच्चारण करना चाहिए। क्योंकि यह उक्थ सब प्रकार से (वर्धनम्) = हमारी वृद्धि करनेवाला है। प्रभु के ये स्तोत्र हमें विषय-वासनाओं से बचाकर हमारी शारीरिक शक्ति को ठीक रखते हैं, परस्पर बनधुत्व अनुभव कराने से हमारे मनों को राग-द्वेष के अभाव में हमारा मस्तिष्क ठीक कार्य करता है। इस प्रकार ये प्रभु के स्तोत्र सब प्रकार से हमारा वर्धन करते हैं।

हमें उस प्रभु की स्तुति करनी चाहिए जो कि (पुरुनिःषधे) = पुरु-पालक और पूरक हैं तथा हमपर आक्रमण करनेवाली सभी असुर वृतियों का संहार करनेवाले हैं। (शक्रः) = [शक्नोति] करने का सब सामर्थ्य तो प्रभु में ही है। हमें चाहिए कि हम सदा स्तोत्रों के द्वारा उस प्रभु के सम्पर्क में रहें जिससे उस प्रभु का सामर्थ्य, नैर्मल्य व ज्ञान हममें भी प्रवाहित हो । जीव प्रभु की समीपता से ही शक्ति- सम्पन्न, निर्मल व ज्ञानी बनेगा।

हमें चाहिए कि हम अपने जीवनों को ऐसा बनाएँ कि (यथा) = जिससे प्रभु (नः) = हमारे (सुतेषु) = शक्ति उत्पादन के कार्यों में तथा लोकहित के लिए किए जानेवाले किसी भी निर्माणात्मक कार्य में (च) = और (सख्येषु) = प्रभु के साथ मित्रत्व के स्थापन में (रारणत) = अत्यन्त प्रसन्न हों [रण्=to rejoice]। ('यः प्रीणयेत् सुचरितैः पितरं स पुत्र:') = जो सुचरितों से पिता को प्रसन्न करे वही तो पुत्र है। हम भी अपने को शक्ति-सम्पन्न बनाते हुए, निर्माणात्मक कार्यों में लगाते हुए तथा उस प्रभु को ही अनन्य मित्र समझते हुए उन्हें प्रसन्न करनेवाले बनें । 'प्रभु की मित्रता' से ऊँची मनुष्य की स्थिति नहीं हो सकती। इस स्थिति में हमारे मनों में किसी प्रकार की अशुभ इच्छाओं का आना सम्भव नहीं। तब तो हम ('मधुच्छन्दा') = मधुर इच्छाओंवाले होंगे। ('वैश्वामित्र:)= सभी के हित चाहनेवाले होंगे।

भावार्थ -

मैं प्रभु के प्रति अपने सख्यभाव को दृढ़ करनेवाला बनूँ।

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