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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 377
ऋषिः - सव्य आङ्गिरसः देवता - इन्द्रः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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त्य꣢꣫ꣳसु मे꣣षं꣡ म꣢हया स्व꣣र्वि꣡द꣢ꣳ श꣣तं꣡ यस्य꣢꣯ सु꣣भु꣡वः꣢ सा꣣क꣡मी꣢꣯रते । अ꣢त्यं꣣ न꣡ वाज꣢꣯ꣳ हवन꣣स्य꣢द꣣ꣳ र꣢थ꣣मि꣡न्द्रं꣢ ववृत्या꣣म꣡व꣢से सुवृ꣣क्ति꣡भिः꣢ ॥३७७॥

स्वर सहित पद पाठ

त्य꣢म् । सु । मे꣣ष꣢म् । म꣣हय । स्वर्वि꣡द꣢म् । स्वः꣣ । वि꣡द꣢꣯म् । श꣣त꣢म् । य꣡स्य꣢꣯ । सु꣣भु꣡वः꣢ । सु꣣ । भु꣡वः꣢꣯ । सा꣣क꣢म् । ई꣡र꣢꣯ते । अ꣡त्य꣢꣯म् । न । वा꣡ज꣢꣯म् । ह꣣वनस्य꣡दम् । ह꣣वन । स्य꣡द꣢꣯म् । र꣡थ꣢꣯म् । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । व꣣वृत्याम् । अ꣡व꣢꣯से । सु꣣वृक्ति꣡भिः꣢ । सु꣣ । वृक्ति꣡भिः꣢ ॥३७७॥


स्वर रहित मन्त्र

त्यꣳसु मेषं महया स्वर्विदꣳ शतं यस्य सुभुवः साकमीरते । अत्यं न वाजꣳ हवनस्यदꣳ रथमिन्द्रं ववृत्यामवसे सुवृक्तिभिः ॥३७७॥


स्वर रहित पद पाठ

त्यम् । सु । मेषम् । महय । स्वर्विदम् । स्वः । विदम् । शतम् । यस्य । सुभुवः । सु । भुवः । साकम् । ईरते । अत्यम् । न । वाजम् । हवनस्यदम् । हवन । स्यदम् । रथम् । इन्द्रम् । ववृत्याम् । अवसे । सुवृक्तिभिः । सु । वृक्तिभिः ॥३७७॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 377
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 3;
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पदार्थ -

गत मन्त्र की भाँति सब्य कहते हैं कि (त्यम्) = उस (सुमेषम्) = उत्तम बरसनेवाले (स्वर्विदम्) = प्रकाश को प्राप्त करानेवाले प्रभु को महया पूजो, (यस्य) = जिसकी (शतम्) = सैकड़ों (सुभुवः) = जीव को उत्तम स्थिति में लाने की प्रक्रियाएँ (साकम्) = साथ-साथ (ईरते) = चलती हैं। प्रभु धन देते हैं, ज्ञान देते हैं और न जाने कितने अचिन्त्य प्रकारों से हमारी स्थिति उत्तम बनाते हैं।

वे प्रभु (अत्यम्) = सतत गतिशील (वाजं न) = घोड़े के समान हैं। यदि मैं प्रकृति का आश्रय न करके प्री का आश्रय करता हूँ तो मेरी यह जीवन यात्रा आगे-और-आगे बढ़ती ही चलती है। वे प्रभु तो निरन्तर गतिशील घोड़े के समान हैं, प्रभु पर मैं आरूढ़ हुआ और मेरी यात्रा पूरी हुई। वे प्रभु (हवनस्यदम्) = पुकार सुनते ही वेग से आनेवाले हैं। वे (रथम्) = सर्वोत्तम सारथि हैं। यदि मैं अपने रथ का सारथित्व प्रभु को सौंपता हूँ तो क्या कभी कोई गलती हो सकती है? अतः मैं इस कठिन जीवन-यात्रा में (अवसे) = रक्षा के लिए (इन्द्रम्) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु की ओर (वावृत्यम्) = अपने को मोड़ता हूँ, आवृत्त करता हूँ। प्रभु की ओर मेरी चित्तवृत्ति मुड़ी और मेरा कल्याण हुआ।

यह प्रभु की ओर मुड़ना होता कैसे है? (सुवृक्तिभिः) = उत्तम वर्जनों के द्वारा । मैं काम-क्रोध को छोड़ता हूँ, तो बस मैं प्रभु की ओर मुड़ता हूँ। इस छोड़ने की प्रक्रिया को ही व्रतग्रहण कहते हैं। व्रत में हम किसी पाप को छोड़ते हैं। पाप को छोड़कर मैं प्रभु की ओर चलतो

यह प्रभु की ओर चलना सांसारिक दृष्टिकोण से भी तो किसी प्रकार घाटे का सौदा नहीं, प्रभु प्रकाश को प्राप्त कराते हैं, [स्वर्विदम्] तो धन के समुद्र भी हैं [वस्वो अर्णवम्] और बरसनेवाले ही नहीं [मेषम् ] खूब बरसनेवाले हैं [ सुमेषम् ] । उनकी मानव पालन की प्रक्रियाएँ सेकड़ों हैं, सैकड़ों ही क्या सारे आकाश में व्याप्त हैं। पालन के लिए पर्याप्त धन तो प्रभु प्राप्त कराते ही हैं। 

भावार्थ -

सदा उत्तम व्रतों से मैं प्रभु की प्रार्थना करूँ।

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