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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 380
ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः देवता - इन्द्रः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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प्र꣢ म꣣न्दि꣡ने꣢ पितु꣣म꣡द꣢र्च꣣ता व꣢चो꣣ यः꣢ कृ꣣ष्ण꣡ग꣢र्भा नि꣣र꣡ह꣢न्नृ꣣जि꣡श्व꣢ना । अ꣣वस्य꣢वो꣣ वृ꣡ष꣢णं꣣ व꣡ज्र꣢दक्षिणं म꣣रु꣡त्व꣢न्तꣳ स꣣ख्या꣡य꣢ हुवेमहि ॥३८०॥

स्वर सहित पद पाठ

प्रं꣢ । म꣣न्दि꣡ने꣢ । पि꣣तुम꣢त् । अ꣣र्चत । व꣡चः꣢꣯ । यः । कृ꣣ष्ण꣡ग꣢र्भाः । कृ꣣ष्ण꣢ । ग꣣र्भाः । निर꣡ह꣢न् । निः꣣ । अ꣡ह꣢꣯न् । ऋ꣣जि꣡श्व꣢ना । अ꣣वस्य꣡वः꣢ । वृ꣡ष꣢꣯णम् । व꣡ज्र꣢꣯दक्षिणम् । व꣡ज्र꣢꣯ । द꣣क्षिणम् । मरु꣡त्व꣢न्तम् । स꣣ख्या꣡य꣢ । स꣣ । ख्या꣡य꣢꣯ । हु꣣वेमहि ॥३८०॥


स्वर रहित मन्त्र

प्र मन्दिने पितुमदर्चता वचो यः कृष्णगर्भा निरहन्नृजिश्वना । अवस्यवो वृषणं वज्रदक्षिणं मरुत्वन्तꣳ सख्याय हुवेमहि ॥३८०॥


स्वर रहित पद पाठ

प्रं । मन्दिने । पितुमत् । अर्चत । वचः । यः । कृष्णगर्भाः । कृष्ण । गर्भाः । निरहन् । निः । अहन् । ऋजिश्वना । अवस्यवः । वृषणम् । वज्रदक्षिणम् । वज्र । दक्षिणम् । मरुत्वन्तम् । सख्याय । स । ख्याय । हुवेमहि ॥३८०॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 380
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 11
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 3;
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पदार्थ -

१. (मन्दिने) = सदा प्रसन्नता प्राप्त करानेवाले प्रभु के लिए (पितुमत् वच:) = रक्षणात्मक प्रार्थना-वचन (प्र अर्चत) = खूब उच्चारण करो, रक्षणात्मक प्रार्थना-वचनों से प्रभु की पूजा करो। वस्तुतः प्रभु से सांसारिक सुख भोगों की याचना करके हम प्रभु का भी आदर नहीं कर रहे होते। ‘प्रभु हमें काम-क्रोधादि आसुर वृत्तियों से सुरक्षित करें' यही सर्वोत्तम प्रार्थना है, यही प्रभु की सच्ची पूजा भी है। इन प्रार्थनाओं को क्रियारूप में अपने जीवन में लाकर हम अपने जीवनों को प्रसादमय बना पाते हैं। प्रभु (मन्दिन्) = हमें प्रसन्न करनेवाले तो हैं ही।  

२. उस प्रभु के लिए हम रक्षणात्मक प्रार्थना वचन कहें (यः) = जो (कृष्णगर्भाः) = मनुष्यों के गर्भ में विद्यमान कालिमा को, काली-अशुभ पापमयी चित्तवृत्तियों को (ऋजिश्वना) = सरल मार्ग से (निरहन्) = नष्ट करते हैं। ('युयोधि अस्मत् जुहुराणमेन:') = हमसे कुटिल पाप को दूर कीजिए।

३. हमारी वृत्ति शुभाशुभ बहुत कुछ सङ्ग व साथ से बनती है। इसीलिए कहते हैं कि (अवस्यवः) = रक्षण चाहते हुए हम (सख्याय) = मित्रता के लिए (हुवेमहि) = पुकारते हैं। किसको ?
[क] (वृषणम्) = जो बरसनेवाला है, जो कृपण नहीं।
[ख] (वज्रदक्षिणम्) = जो शरीर में वज्र तुल्य है और मस्तिष्क में चतुर है। निर्बल शरीरवाला अधिक लोकहित नहीं कर सकता और मूर्ख व्यक्ति हमें संकटों से बचा नहीं सकता।
[ग] (मरुत्वन्तम्) = जो प्राणोंवाला है। जिसने प्राणों की साधना की है। प्राण साधना चित्त व इन्द्रियों के मलों को दूर कर उन्हें निर्मल बनाती है। निर्मल मनवाला मित्र ही सर्वोत्तम मित्र है। सब वसनाओं को कुचल डालने से ही यह इस मन्त्र का ऋषि ‘कुत्स’ ‘कुथ हिंसायाम्' है।

भावार्थ -

प्रभु के प्रति मैं रक्षणात्मक प्रार्थना - वचन कहूँ । सरल मार्ग से चल कर हृदय की कालिमा को धो डालूँ। दानी, सबल, चतुर व साधु स्वभाव मित्रों के साथ विचरूँ। 

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