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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 382
ऋषिः - गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ
देवता - इन्द्रः
छन्दः - उष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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त꣡मु꣢ अ꣣भि꣡ प्र गा꣢꣯यत पुरुहू꣣तं꣡ पु꣢रुष्टु꣣त꣢म् । इ꣡न्द्रं꣢ गी꣣र्भि꣡स्त꣢वि꣣ष꣡मा वि꣢꣯वासत ॥३८२॥
स्वर सहित पद पाठत꣢म् । उ꣣ । अभि꣢ । प्र । गा꣣यत । पु꣣रुहूत꣢म् । पु꣣रु । हूत꣢म् । पु꣣रुष्टुत꣢म् । पु꣣रु । स्तुत꣢म् । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । गी꣣र्भिः꣢ । त꣣विष꣢म् । आ । वि꣣वासत ॥३८२॥
स्वर रहित मन्त्र
तमु अभि प्र गायत पुरुहूतं पुरुष्टुतम् । इन्द्रं गीर्भिस्तविषमा विवासत ॥३८२॥
स्वर रहित पद पाठ
तम् । उ । अभि । प्र । गायत । पुरुहूतम् । पुरु । हूतम् । पुरुष्टुतम् । पुरु । स्तुतम् । इन्द्रम् । गीर्भिः । तविषम् । आ । विवासत ॥३८२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 382
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 5; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 4;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 5; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 4;
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विषय - महत्त्व की रक्षा
पदार्थ -
गतमन्त्र के आत्मसंयम, क्रतु- पवित्रता, प्रभु - स्तवन, वृद्धि व दक्षता के लाभ से हमें महत्त्व की प्राप्ति हुई। अब इस महत्त्व की रक्षा के लिए इस मन्त्र में कहते हैं कि महान् बने रहने के लिए उस महान् प्रभु की उपासना करो | (उ) = निश्चय से (तम्) = उसे (अभि) = लक्ष्य करके (प्रगायत) = खूब ही गायन करो, जो प्रभु कि (पुरुहूतं पुरुष्टुतम्) = जिनकी पुकार [हूतम्] व जिनका स्तवन [स्तुतम्] तुम्हारा पालक व पूरक [पुरू] है। प्रभु को पुकारने से व स्तुत करने से हमारी प्रयत्न- सिद्ध महत्ता की रक्षा होगी और जो कमी होगी उसका पूरण हो जाएगा। (इन्द्रम्) = वे प्रभु तो परमैश्वर्यशाली व सर्वशक्तिमान् हैं, (तविषम्) = महान् हैं, उस महान् प्रभु को (गीर्भि) = इन वेदवाणियों के द्वारा (आविवासत) = सर्वथा परिचित करो, पूजो हमा ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा वेदवाणियों का उच्चारण करनेवाले हम ‘गोषूक्ति' बनें और कर्मेन्द्रियों से इनका कथन करनेवाले ‘अश्वसूक्तिन्'। कण-कण करके इस प्रकार ज्ञानेन्द्रियों से वेदवाणियों को समझेंगे और कर्मेन्द्रियों से उनको क्रियान्वित करेंगे तो क्यों न महान् बने रहेंगे? उस तविष=महान् प्रभु के सम्पर्क में हम भी महान् बने रहेंगे [तु-वृद्धौ] । वे प्रभु अपने प्रकाशमान स्वरूप में सदा बढ़े हुए हैं, उनके सम्पर्क में रहता हुआ मैं भी महान् बना रहूँगा। जो व्यक्ति प्रभु से दूर हुआ उसी ने अपनी महत्ता को खोया । कारण यह कि प्रभु से दूर होते ही अभिमान दबा लेता है - और अभिमान पतन का कारण बन जाता है ।
भावार्थ -
मैं सदा प्रभु को स्मरण करूँ ताकि अधोगति को प्राप्त न हो जाऊँ।
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